पंकज शर्मा
December 26, 2020
मुझे लगता
है कि मोतीलाल
वोरा जी को भी 48 बरस
की अपनी कांग्रेसी
सियासत में कई बार आत्मरक्षात्मक
चतुराई से ज़रूर काम लेना
पड़ा होगा, मगर
उन्होंने जो कुछ
हासिल किया, कुल
मिला कर अपनी भलमनसाहत के चलते किया। मैं
उन्हें सब मिला कर चार
दशक तक दूर-पास से
देखने के बाद इतना तो
ज़रूर कहूंगा कि
वे प्रपंची नहीं
थे, वे छली नहीं थे
और राजनीति के
बीहड़-वन में उन्होंने अपने लिए
एक पवनार-कुटिया
बना रखी थी।
इसीलिए
जिस सियासी भड़भड़
में अच्छे-अच्छे
भी चूं बोल जाते हैं,
वोरा जी तिरानबे
पूरे करने तक भी पूरी
तरह टिके रहे।
पिछले तीन-चार साल में
उनके शरीर ने थकान के
संकेत देना ज़रूर
शुरू कर दिया था, मगर
उनके सभी मस्तिष्क-तंतु एकदम
सिलसिलेवार थे, सटीक
थे और वे स्मृतियों का अद्भुत
संग्रहालय थे। उनकी
अलविदाई का दर्द तो स्वाभाविक
है, मगर इस बात का
सुख भी है कि ईश्वर
ऐसी रुख़सत बिरलों
को ही देता है।
उनका
जाना कांग्रेस ही
नहीं, भारतीय राजनीति
की, अभिभावक परंपरा
की, अब इक्का-दुक्का बची,
अंतिम मीनारों में
से एक और का ढह
जाना है। आजकल
जो जितने भव्य
कमरे में क़ैद हो कर
बाहर जितने ज़्यादा
पहरेदार खड़े कर लेता है,
वह उतना ही कद्दावार लगने लगता
है। इस हिसाब
से वोरा जी का तो
कोई कद था ही नहीं।
मगर जिन्होंने भारतीय
राजनीति की असली चौपालें देखी हैं,
वे समझ सकते
हैं कि बौनों
के वर्तमान देश
में वोरा जी सरीखे गुलीवरों
की अहमियत क्या
होती है। उनकी
अनुपस्थिति से उपजी
विपन्नता का अहसास
हमारी सियासत के
क्षितिज पर हमेशा
अमिट रहेगा।
राजनीतिक
होड़ की दौड़ के चलते
कई अतिमहत्वाकांक्षी कांग्रेसियों
को मैं ने वोरा जी
की बेहद साधारण
और संघर्ष भरी
आरंभिक पृष्ठभूमि का
मखौल बनाते कई
बार सुना। अपने
अंगने में आम-जन के
प्रवेश पर नाक-भौं सिकोड़ने
वाले कुलीनों से
लबालब भरी सियासत
का पतनाला खुद
के कपड़े गंदे
किए बगै़र पार
कर जाना आसान
नहीं होता है।
वोरा जी ने यह मुश्क़िल
काम कर के दिखलाया। आपने भी बड़े-बड़े
दलिद्दरों को छोटे-मोटे सिंहासन
मिलते ही अभिजात्य
होते देखा होगा।
मगर वोरा जी ऐसों का
ठोस-विलोम थे।
वोरा
जी 52 बरस पहले
दुर्ग की नगरपालिका
के पार्षद बने
थे। फिर मंत्री
बने, मुख्यमंत्री बने,
केंद्रीय मंत्री बने,
राज्यपाल बने और
18 साल तक कांग्रेस
जैसी पार्टी के
कोषाध्यक्ष रहे, मगर
अपना काम उसी पार्षद-भाव
से करते रहे।
निष्ठावान थे, मगर
चापलूस नहीं। विनम्र
थे, मगर कायर
नहीं। सहज थे, मगर चूं-चूं का
मुरब्बा नहीं। बुद्ध
थे, मगर बुद्धू
नहीं। उनके पास
समस्याओं के समाधान
की काफी लंबी
डोर हुआ करती
थी। मगर समय आने पर
वे जब दृढ़ हो जाते
थे तो कोई उन्हें अपनी
आन से डिगा नहीं सकता
था।
ऐसे बहुत-से
मौक़े आए, जब कइयों की
हद से बाहर जाने वाली
हरकतें वे ख़ामोशी
से महीनों नहीं,
बरसों झेलते रहते
थे और जब-जब मैं
कहता कि फ़ैसला
लेने में हिचक
क्यों रहे हैं तो कहते
कि पंडित जी,
कच्चे फोड़े का ऑपरेशन नहीं
किया जाता। पूरा
पकने दो पहले।
और, मैं ने बहुत बार
देखा कि वक़्त
आने पर अच्छे-ख़ासे तुर्रमखानों
का उन्होंने कैसे
इलाज़ किया। वोरा
जी से संपर्क-संबंधों का कैनवस
अनंत-सा लगता है। इस
पर पता नहीं
कितने चटख, धूसर
और म्लांत रंग
बिखरे हुए हैं।
वे परंपरावादी थे,
लेकिन दकियानूसी नहीं।
अपने को परिस्थितियों
के मुताबिक़ और
परिस्थितियों को अपने
मुताबिक़ ढाल लेने
की गोपनीय विद्या
जानते थे।
पिछले
कुछ बरस से देश की
राजनीति के ज़िक्र
होने पर उनके चेहरे पर
असहाय मुस्कान आ
जाया करती थी।
कांग्रेस की भीतरी
स्थितियों पर फ़िक्र
की लकीरें उनकी
पेशानी पर मैं ने कई
बार देखीं, मगर
उम्मीदों का झरना
भी उनके अंदर
समान गति से बहता रहता
था। संस्मरण सुनाते
रहते थे, लेकिन
आत्मकथा लिखने को
कभी तैयार नहीं
हुए। अपने को अकिंचन बता
कर यह बात टाल देते
थे। कहते थे,
छोड़ो, कौन पढ़ेगा?
मैं हूं ही क्या? सोचता
हूं, वोरा जी की तरह
मन को मीरा और तन
को कबीर बना
लेने वाले कितने
लोग आज के सियासी संसार
में होंगे?
इस साल जून
के महीने का
दूसरा सोमवार था।
मैं दोपहर सवा
दो-ढाई बजे कांग्रेस मुख्यालय पहुंचा
तो देखा वोरा
जी अपने कमरे
में अकेले बैठे
हैं। कोरोना से
सारी सड़कें और
मैदान खाली थे।
मगर वोरा जी हफ़्ते में
दो-तीन दिन एआईसीसी आए बिना नहीं रहते
थे। उस दिन की बातचीत
में लगा कि वोरा जी
ऊपर से ठहराव
दिखा रहे हैं,
मगर भीतर कुछ
बेचैनी है। राज्यसभा
का उनका कार्यकाल
ख़त्म हो चुका था। कांग्रेस
के कोषाध्यक्ष की
ज़िम्मेदारी से भी
मुक्त हो गए थे। प्रशासन
के प्रभारी महासचिव
भर थे। बहुत
देर की बातचीत
के बाद मैं ने कहा
कि आज आप कुछ परेशान
से लग रहे हैं। बोले,
अरे नहीं। अपने
को क्या परेशानी?
लोदी एस्टेट का
घर खाली करना
है, सामान पैक
कराने में लगा हूं, तो
थोड़ी थकान-सी हो गई
है।
फिर बताने लगे
कि जब मुख्यमंत्री
था तो सब ने कहा
कि भोपाल में
एक मकान तो बनवा लो।
मगर मैं ने कहा कि
क्या करना है?
दिल्ली रहा तो सब ने
कहा कि यहां मकान ले
लो। मैं ने कहा कि
क्या करना है?
रायपुर तक में अपना मकान
नहीं बनवाया। अब
दिल्ली में तो कोई काम
मेरे लिए है नहीं। कुछ
मुकदमों में फंसा
हुआ हूं, बस।
अब रायपुर चला
जाऊंगा। वहां पूर्व
मुख्यमंत्री के नाते
सरकारी मकान मिल
जाएगा। बचा-खुचा
जीवन गुज़र जाएगा।
नहीं तो दुर्ग
जा कर रह लूंगा।
मेरा
मन थोड़ा भारी
हो गया। चार-छह दिनों
बाद मैं अहमद
पटेल जी के पास गया।
उन्हें वोरा जी की चिंता
बताई। कहा कि वे शायद
अपने मुंह से नहीं कहेंगे,
लेकिन उन्हें फ़िक्र
है कि अब कहां रहेंगे।
बाद में अहमद
भाई वोरा जी से मिलने
गए। अपने नाम
से अतिथि-आवास
आवंटित करा कर वोरा जी
को दिया। लहीम-शहीम बंगले
से निकल कर वोरा जी
7-साउथ एवेन्यू के
छोटे-से भूतल फ्लैट में
आ गए। अगस्त
के पहले शनिवार
की शाम मैं अहमद भाई
से मिलने गया
तो आधा वक़्त
वे वोरा जी के परिश्रम
और समर्पण की
ही कहानियां सुनाते
रहे।
अगस्त
के ही अंतिम
बुधवार को वोरा जी से
मेरी अंतिम निजी
मुलाक़ात हुई। सुबह
साढ़े ग्यारह बजे
मैं साउथ एवेन्यू
गया। चाय पीने
के बाद तम्बाकू
वाला अपना पान
खाया और मुझे बिना तम्बाकू
वाला खिलाया। इधर-उधर की
पता नहीं कितनी
बातें कीं। हंसते
रहे और बोले कि पंडित
जी, जीवन ने सारे रंग
दिखाए हैं। बताया
कि किस तरह जो लोग
आगे-पीछे घूमते
थे अब मिलने
तक नहीं आते
हैं। कुछेक बड़े
नामों के ताजा व्यवहार का ज़िक्र
किया।
सालासार
बालाजी से 51 किलोमीटर
दूर निंबी जोधा
गांव से चल कर वोरा
जी कहां-कहां
से गुज़रते हुए
हमारे बीच से चले गए।
कोई दस साल पहले बिग
बाज़ार और फ्यूचर
ग्रुप के मालिक
किशोर बियानी ने
अपने आलीशान दफ़्तर
में शीशे के गिलास में
चाय में बिस्कुट
डुबा कर पीते-पिलाते मुझे
बताया था कि उनका परिवार
राजस्थान में लांडनू
के पास उसी निंबा जोधा
से बंबई आया
था, जहां ‘आपके
वोरा जी’ जन्मे हैं।
तब बियानी जी
ने उस गांव का इतिहास
बताया था कि कैसे 16वीं
सदी में सबसे
पहले जोधा राजपूत
और निंबोजी बोहरा
समुदाय के लोग वहां आ
कर बसे थे।
उस मिलीजुली तहज़ीब से
निकला एक सांस-फ़कीरा यह
फ़ानी दुनिया छोड़
कर अंततः अपने
घर लौट गया।
ओम शांतिः!
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