October 24, 2020
कल दशहरा
है और सियासत
भी दशानन है
कि नहीं, मैं
नहीं जानता। लेकिन
इतना ज़रूर जान
गया हूं कि राजनीति का धड़ तो एक
होता है, मगर उसके कंधे
पर, ज़्यादा नहीं
तो, कम-से-कम दो
सिर तो होते ही हैं।
एक, जन-राजनीति
का। दूसरा, दरबारी-राजनीति का। सो, अगर आपको
सियासी-काया का हिस्सा बनना
है तो इनमें
से किसी एक प्रवेश द्वार
का सहारा लेना
होगा।
जन-राजनीति का प्रवेश
द्वार ख़ासा चौड़ा
है। उसमें शुरुआती
प्रवेश आसान है।
लेकिन उसके भीतर
की राह अनंत
है। चलते रहिए,
चलते रहिए, लड़ते
रहिए, भिड़ते रहिए।
दरी बिछाने से
शुरू कर के एक दिन
कहीं पहुंच गए
तो पहुंच गए।
पहले बिना पारिवारिक
परिचय पत्र के भी आपको
किसी ठिए पर सुस्ताने का मौक़ा मिल जाया
करता था, मगर अब मुश्क़िल
है। पहले बिना
खन-खन के भी आपको
रास्ते की किसी सराय में
ज़गह मिल जाया
करती थी, मगर अब मुश्क़िल
है।
दरबारी-राजनीति का प्रवेश
द्वार बेहद संकरा
है। उसमें आरंभिक
पैठ आसान भी नहीं है।
उसके चप्पे-चप्पे
पर जड़-मूर्ख
दरबान चस्पा रहते
हैं। लेकिन प्रवेश
द्वार के बाद की राह
असीम नहीं, ससीम
है। आप में चलने का
हुनर हो तो, बस, पहुंचे
ही समझो। रास्ते
में मारधाड़ है।
लेकिन वह जन-राजनीति के मैदान
की तरह फ़र्रुख़ाबादी
नहीं, मोल-भाव वाली है।
एक-दूसरे की
पीठ खुज़लाते रहिए,
मंज़िल हासिल हो
ही जाएगी।
दरबार
हमेशा से रहे। मगर एक
ज़माने में दरबारों
में भी प्रवेश
की पात्रता-रेखा
या तो जन-राजनीति में आपका
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव हुआ
करता था या फिर सियासत
से इतर ऐसी सकारात्मक विधाओं में
आपकी हुनरमंदी, जिससे
राजनीति की काया स्वस्थ रखी
जा सके। लेकिन
वह ज़माना जब
था, तब था। ‘यथा राजा,
तथा प्रजा’ तो हम बचपन से
सुनते आए हैं। खुले मैदानों
में तो ऐसे बहुत-से
प्रजा-जन हमेशा
से मौजूद रहे
हैं, जो ‘यथा राजा’ होने से
इनकार करते रहे
हैं। मगर दरबारी-प्रजा होने
की तो पहली शर्त ही
‘यथा राजा’ होना है।
दरबारों में विदुरों
को तो अपने हाल पर
अंततः झींकना ही
होता है।
ऐसा नहीं है
कि दरबारों में
भाट पहले नहीं
होते थे। अपना
अहं सहलाने के
लिए भाटों की
ज़रूरत किस राजा
को नहीं पड़ती?
सो, इक्कादुक्का भाट
हर दरबार में
हुआ ही करते थे। मगर
आज बिना भाट
हुए आप दरबार
में आसंदी पा
ही नहीं सकते।
आसंदी शब्द ज़रा
ग़लत हो गया। वह भी
गुज़रे ज़माने की
बात है कि भाट को
भी दरबार में
बैठने की ज़गह मिलती होगी।
अब, एक तो भाटगिरी का परचम अपने माथे
पर बांधे बिना
आपको कोई दरबार
का प्रवेश-पत्र
देगा ही नहीं और भीतर
के सबसे बाहरी
गलियारे में पहुंच
भी गए तो धक्कामुक्की कर के खड़े रहने
भर की ज़गह मिल जाए
तो अपनी क़िस्मत
पर कुछ वक़्त
इतरा लीजिए।
कुछ वक़्त इसलिए
कि जन-राजनीति
में, चाहे कुछ
भी हो, जनता
तय करती है कि आपके
कंधे पर कितने
सितारे टंकेंगे और
कब तक टंके रहेंगे। दरबारी-राजनीति
में तो मोगेंबो
ख़ुश हो जाए तो अपना
नौलखा हार आपकी
तरफ़ फेंक दे और उसका
ज़ायका ख़राब हो जाए तो
म्यान से तलवार
निकाल ले। सो, जब तक
अपना भाटपन सहेजे
रखेंगे, मज़ा लीजिए।
लेकिन यह मज़ा भी बिना
नींद गवांए नहीं
मिलेगा। क्योंकि जब
सब ही भाट हैं तो
भाटों की अपनी होड़ है।
हर रोज़, हर एक से
बेहतर, भाटगिरी करने
का विज्ञान जिन्हें
आता है, वे थोड़े दीर्घजीवी
हो जाते हैं।
बाक़ी तो क्षणभंगुर
भर हैं। भाट-शिरोमणि का ओहदा हासिल करने
के चक्कर में
मैं ने कइयों
को घिनघिनाती रंक-गति को
प्राप्त होते हुए
देखा है।
दरबार
भी हज़ारों हैं।
दरबारों की भी परतें हैं।
शिखर-दरबार में
प्रवेश के लिए भी तरह-तरह के
दरबारों का फेरा है। सो,
पहले आपको एक ऐसे दरबार
का चारण-सदस्य
बनना होगा, जो
दरबार-महासंघ का
हिस्सा है। अगर कहीं आप
किसी ऐसे दरबार
में घुस कर प्रसन्न हो रहे हैं, जो
टापू-दरबार है
तो आपकी प्रसन्नता
जल्दी ही काफ़ूर
हो जाएगी। टापू
की सीमाओं के
बाहर जिस दरबार
की कोई पूछ-परख नहीं,
उसके दड़बे में
आप कितने ही
बड़े पहलवान हों,
आपका जीवन व्यर्थ
है। दरबार तो
वही है, जिसे
दरबार-महासंघ की
मान्यता प्राप्त है।
महासंघ से बाहर का दरबार
भाड़ भले ही झोंकता रहे,
उसका चना फूटेगा
कभी नहीं।
सो, एक दरबार
का बादशाह दूसरे
दरबार का दुमछल्ला
है। वह अपने दरबार में
हुंकार भरता है और दूसरे
दरबार में जा कर चिलम।
अपने से कमज़ोरों
के सामने दोनों
हाथ कमर पर बांध कर
गर्दन बाईं तरफ़
टेढ़ी कर के चलने लगता
है और अपने से मज़बूत
के सामने दोनों
हाथ सामने बांध
कर गर्दन दाईं
तरफ़ लटका कर खड़ा हो
जाता है। अपनी
इसी देह-भाषा
की महारत के
चलते वह एक दिन चलते-चलते मनचाही
मंज़िल हासिल भी
कर लेता है।
सुल्तानी
और दुमछल्लीकरण का
यह खेल राष्ट्रीय
ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय
स्तर तक चलता है। इसीलिए
आप एक राष्ट्र-राज्य के
ऐंठू शासक को किसी दूसरे
मुल्क़ के हुक़्मरान
के सामने दुम
हिलाते देखने तक
को अभिशप्त हैं।
आजकल ज़माना चूंकि
सीधे-सीधे गुलाम
बनाने का नहीं है, इसलिए
यह काम दोस्त
बनाने के बहाने
होता है। राज्य
कितना ही मज़बूत
हो, उसकी प्रजा
कितनी ही ग़ैरतमंद
हो, लेकिन अगर
उसका राजा हर तरह के
बौनेपन की गठरी हो, तो
नए वैश्विक संसार
में, वह घनघोर
स्वार्थी संस्कारों से लबरेज़
किसी दूसरे राज्य
के, धन्ना-शासक
से अपनी ‘मित्रता’
की ज़ाहिर सूचना
छपवाने के लिए मारा-मारा
फिरता है। वह हमें यह
बताने में कोई कसर बाक़ी
नहीं रखता कि हज़ारों मील
दूर के एक वैश्विक दरबार में
उसने कैसी पैठ
कर ली है।
अपना
सारा भावनात्मक-शील
और मानसिक-सतीत्व
खो कर जिन्होंने
देसी-परदेसी दरबारों
में ज़गह बना ली है,
आइए, उनका अभिवादन
करें! उनके त्याग
पर न्योछावार हों!
क्योंकि अपनी छाती
पर पता नहीं
कितने-कितने पत्थर
रख कर जिन्होंने
ख़ुद के लिए परमवीरता और उल्लास
के ये क्षण हासिल किए
हैं, वे अभिनंदनीय
हैं। वे आपकी तरह धूप
में नंगे पांव
चल कर अपने काम में
लगे रहने की क़ोशिश नहीं
कर रहे हैं।
वे आप से ज़्यादा परिष्कृत हैं।
इसलिए आप उनके संसार से
बहिष्कृत हैं। आप
उन्हें यह नहीं समझा सकते
कि निष्ठाएं अच्छे
जीवन के लिए ज़रूरी तो
हैं, मगर उनकी
सार्थकता व्यक्तियों के प्रति
नहीं, मुद्दों के
लिए होने में
है।
जो लोकतंत्र के आंगन में दंड
पेल रहे हैं और जानते
हैं कि समय स्व-साथ
का है, उनकी
ज्ञान की चोंच के सामने
आपका सब स्वाध्याय
निरर्थक है। आपको
लगे तो लगे कि उन्होंने
धांताली मचा रखी है। उन्हें
आपसे क्या? वे
सिर्फ़ स्वयं के
साथ हैं। बाक़ी
किसी के नहीं।
जिस दरबार में
खड़े हैं, उसके
शहंशाह के भी नहीं। वे
बादशाह को अपनी देह-मुद्राओं
से भरमाने का
हुनर रखते हैं।
वे सुल्तान को
अपनी शीरीं ज़ुबान
से मोहित करने
का फ़न जानते
हैं। दरबार के
इंद्र को तो अदाओं पर
मुग्ध होने की आदत होती
ही है। बड़े-से-बड़ा
योद्धा भी इंद्रासन
पर बैठते ही
पिलपिल हो जाता है। वह
अपना असली स्वभाव
भूल जाता है।
उसे भुलावे में
रहने में आनंद
आने लगता है।
उसे भुलावे में
रखने वालों को
भी आनंद आने
लगता है। फिर जन-राजनीति
के नियम भी आजकल दरबार
से तय होने लगे हैं।
इसीलिए हमारे जनतंत्र
का सूरज अब नीचे से
ऊपर की तरफ़ नहीं, ऊपर
से नीचे की तरफ़ चढ़ता
है। फिर भले ही इस
उलटबांसी में वह
एक दिन अस्तांचलगामी
हो जाए।
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