June 20, 2020
राहुल गांधी कल पचास के हो गए। उन्हें राजनीति और
संसदीय जीवन के भी 16 साल हो गए हैं। कांग्रेस पार्टी के सांगठनिक पदों पर रहने का
उन्हें 12 बरस का तजु़र्बा है। सियासत में आने के बाद उन्होंने सवा तीन साल तक संगठन
में कोई पद नहीं संभाला था और अब कांग्रेस-अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी छोड़े उन्हें दो हफ़्ते
बाद एक साल पूरा हो जाएगा। सो, ये चार साल छोड़ कर बाकी वक़्त वे पार्टी-संगठन की देखभाल
भी करते रहे हैं।
पिछले बरस जुलाई
के पहले बुधवार को राहुल ने दोपहर 3 बज कर 37 मिनट पर जब अपना इस्तीफ़ा ट्वीट कर ख़ुद
को लटकनपच्चू कयासों से अंततः मुक्त करने का ऐलान किया था तो सनसनी के साथ सन्नाटा
भी पसर गया था। कुछ ने उनकी ज़िद को बाल-हठ बताया और कुछ ने राज-हठ। सब का ख़्याल था
कि चंद रोज़ की बात है, वे मान जाएंगे और लौट आएंगे।
मगर मनाने की
तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं। राहुल नहीं माने, तो, नहीं माने। पर उनकी ज़िद न बाल-हठ
साबित हुई, न राज-हठ। वह हठ-योग साबित हुई। हठयोग की साधना सिर्फ़ शरीर शोधन का साधन
नहीं है, वह मन और तन के संतुलन का पहला सोपान है। राहुल को कांग्रेस का तन भी ठीक
करना था और मन भी। सो, वे किसी निर्मोही की तरह भरी दुपहरी सब को छोड़ कर चलते बने थे।
जाते-जाते अपने
इस्तीफ़े में राहुल ने 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस की हार को अध्यक्ष के नाते अपनी
ज़िम्मेदारी बताया और कहा कि भावी संवृद्धि के लिए जवाबदेही बहुत ज़रूरी है। फिर उन्होंने
चंद और बेहद अहम बातें कहीं।
एक, पुनर्निमाण
के लिए कांग्रेस को कठोर फ़ैसले लेने होंगे और 2019 की हार के लिए बहुत-से लोगों को
जवाबदेह ठहराना होगा।
दो, मेरा संघर्ष
राजनीतिक सत्ता के लिए सामान्य लड़ाई कभी भी नहीं था। मैं अपने मुल्क़ के बुनियादी ताने-बाने
को बचाने का अनवरत संग्राम लड़ रहा हूं, जो एक ज़माने से चल रहा है। हमने पूरी शिद्दत
और गरिमा के साथ चुनाव लड़ा। मैं निजी तौर पर प्रधानमंत्री, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
और उन संस्थानों के खि़लाफ़ लड़ा, जिन पर कब्ज़ा कर लिया गया है। कई बार इस युद्ध में
मैं ने अपने को अकेला पाया, मगर मुझे इस बात का भी गर्व है। मैं ने कार्यकर्ताओं और
पार्टी के सहयोगियों के जज़्बे और प्रतिबद्धता से बहुत कुछ सीखा।
तीन, इस चुनाव
में सत्ता दोबारा जिन तत्वों के चंगुल में गई है, उससे आने वाले दिनों में किसानों,
बेरोज़गार नौजवानों, महिलाओं, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों की ज़िंदगी दूभर होने
वाली है। अर्थव्यवस्था चौपट होने वाली है। आगे के चुनाव अब सिर्फ़ औपचारिकता भर रह
जाएंगे।
चार, भारत के
सभी लोगों को मिल कर जनतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को पुनर्जीवित करना होगा। मुल्क़
की आवाज़ बनना उसका फ़र्ज़ है। गहरे वैचारिक संघर्ष में बड़ी भूमिका का निर्वाह करने के
लिए कांग्रेस को जड़-मूल से रूपांतरित होना पड़ेगा।
कांग्रेस की
दीवार पर लिखी वेदना भरी इस इबारत के एक साल बाद 135 बरस पुरानी पार्टी आज किस मुक़ाम
पर है? अर्थव्यवस्था और वंचितों की मुसीबतों के बारे में कही गई राहुल की बातें तो
सच निकलीं। भविष्य के चुनावों के स्वरूप को ले कर उनके अंदेशे भी सही साबित होते लगते
हैं। अध्यक्ष पद पर न रहने के बावजूद राहुल इस बीच अपने बुनियादी कर्मों से कतराते
भी नहीं दिख रहे हैं।
लेकिन क्या शिखर
पर उनकी अनुपस्थिति ने कांग्रेस को जड़-मूल से रूपांतरित करने की दिशा में बढ़ा दिया
है? क्या कांग्रेस ने एक साल में कठोर फ़ैसले लेने की राहुल की सलाह पर कुछ क़दम उठाए
हैं? 2019 की हार के लिए क्या राहुल के अलावा किसी और को जवाबदेह ठहराया गया है? क्या
किसी और ने सच्चे मन से अपने को जवाबदेह मान कर पश्चात्ताप करने का कोई संकेत दिया
है?
अगर मेरे इन
सवालों का कोई सीधा जवाब किसी के पास नहीं है तो फिर कांग्रेस की फुनगी पर राहुल की
गै़रहाज़िरी से फ़ायदा क्या हुआ? मैं तो चाहता हूं कि राहुल ख़ुद भी इस सवाल का जवाब दें।
अरे, राहुल जी, जिस कांग्रेस को बारह बरस में दिन-रात एक कर आप आमूलचूल नहीं बदल पाए,
वह अपने को अंतरिम-काल में स्वयं बदल लेगी? जिस कांग्रेस ने बारह साल में आपके हाथ
नहीं खुलने दिए, आपको घेरा नहीं तोड़ने दिया, आपको लगता है, वह कांग्रेस स्वचलित तरीके
से कायांतरित हो जाएगी?
इसलिए अगर वैचारिक
संघर्ष की बड़ी और ज़रा लंबी लड़ाई के लिए कांग्रेस की पुनर्रचना राहुल सचमुच करना चाहते
हैं तो अपना गांडीव उन्हें दोबारा उठाना ही होगा। इसमें देरी कांग्रेस को टूटन भरे
अंतिम पलों की तरफ़ धकेल रही है। विचारधारा, मूल्यों और सिद्धांतों से प्रतिबद्धता एकांगी
ही होती है, मगर व्यक्ति-विशेष से निष्ठा हमेशा द्विपक्षीय होती है। सामूहिकता सामाजिकता
का तकाज़ा है। सर्वसमावेशिता सामाजिकता का मूल-मंत्र है। और, राजनीति समाज-व्यवस्था
का ही हिस्सा है।
एक धड़े के अनुयोजन
से क्षुब्ध हो कर दूसरे धड़े की गिरफ़्त में फंस जाने का खतरा हमेशा बना रहता है। अलग-अलग
समूहों में विचरने वाले स्वयंभू नायक मुखौटे कितने भी लुभावने लगा लें, उनका धंधा एक
है। इनसे अपनी आस्तीनें झटक कर जो चल देते हैं, वे मंज़िल पर पहुंच जाते हैं। सही-ग़लत
में पहचान की छटी इंद्रिय दिए बिना ईश्वर किसी को मनुष्यलोक में भेजता ही नहीं है।
पशु-पक्षियों को भी नहीं। इस अंतरिंद्रिय के संकेतों की अनदेखी न करने वाले कभी संताप
से रू-ब-रू नहीं होते।
राज-काज का संचालन
चुनमुन-बुद्धिधारियों के भरोसे कभी हुआ है? देश की शासन व्यवस्था हो या सांगठनिक प्रशासन
व्यवस्था, विदुरों और शकुनियों को देखने के लिए कोई दूरबीन थोड़े ही चाहिए होती है।
विवाह के लिए अठारह साल की लड़की न मिलने पर हमारे गांव के एक ठाकुर साहब की शादी उनके
अगलियों-बगलियों ने नौ-नौ बरस की दो कन्याओं से करा डाली। उसके बाद ठाकुर साहब की छब्बेदार
मूंछें, उनका रौबीला चेहरा, कमर से लटकी उनकी तलवार और तुर्रेदार पगड़ी भी जगहंसाई से
उन्हें महफू़ज़ नहीं रख पाई। परिणय में निहित, वंश-परपंरा को आगे बढ़ाने का मूल-विचार
ही, जिस प्रयोग से निष्फल होना तय हो, ऐसे अनुष्ठान की ताईद गांव की चौपाल आख़िर कैसे
करती?
सत्ता ज़हर है,
यह बात तो राहुल को सोनिया गांधी ने सात साल पहले 18-19 जनवरी 2013 की दरमियानी रात
जयपुर में ही बता दी थी। यह बात तो राहुल के दिमाग़ में तभी से साफ़ थी कि उन्हे सत्ता
के पीछे नहीं भागना है, लोगों के सशक्तिकरण के लिए काम करना है। मैं कड़ाके की पड़ती
ठंड में जनवरी के तीसरे शनिवार जयपुर अधिवेशन में उस मंच पर राहुल के पीछे बैठा था,
जिस पर खड़े हो कर वे कह रहे थे: ‘‘हमारे पास योजनाएं हो सकती हैं, हमारे पास इरादे
हो सकते हैं, लेकिन अगर हमारे मन में उम्मीदें नहीं हैं तो कुछ नहीं हो सकता।’’
कांग्रेस को
इसी नाउम्मीदी से बचाने की ज़रूरत है। हर प्रजाति की अमरबेलों से ख़ुद को मुक्त रखने
का संकल्प ले कर अगर राहुल समय रहते वापस आ जाएं तो बात अब भी बन जाए! वरना ‘ख़ल्क़ ख़ुदा
का, मुल्क़ बादशाह का, हुक़्म शहर कोतवाल का’ में चकरघिन्नी बन गई कांग्रेस को उसके हाल पर छोड़ने
का पाप धोने के लिए कौन-सी गंगा का जल लाएगा यह देश?
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