August 1, 2020
आपके या मेरे मानने-न-मानने से कुछ नहीं होता, कांग्रेस
के भीतरी हालात ही ऐसे हैं कि इसके अलावा कुछ हो ही नहीं सकता है कि बतौर अंतरिम अध्यक्ष
सोनिया गांधी का कार्यकाल पूरा होने के बाद अगुआई राहुल को सौंप दी जाए या फिर प्रियंका
पार्टी की कमान संभाल लें या सोनिया की ही अंतरिमता अभी कुछ वक़्त और जारी रहे। जिन्हें
लगता है या जिनकी इच्छा है कि कांग्रेस का अध्यक्ष अब नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का
व्यक्ति बन जाएगा, उन्हें यह समझना चाहिए कि राहुल-प्रियंका कांग्रेस की मजबूरी इसीलिए
है कि कोई किसी और को पार्टी का मुखिया मानने को अभी तैयार ही नहीं होगा। हालत यह है
कि अगर राहुल ख़ुद भी अपने किसी विश्वस्त को अध्यक्ष बना कर पीछे से डोरियां संचालित
करना चाहें तो भी कोई उन्हें ऐसा नहीं करने देगा।
अगर कांग्रेस
के अंतरिक्ष में अगर सब को अपना-अपना आसमान मिल जाए तो राहुल की पुनर्वापसी की स्वागत
कतार में तो फिर भी सारे अर्वाचीन और नए-नकोर चेहरे खड़े हो जाएंगे, लेकिन राहुल की
मुहर माथे पर लगाए घूम रहे किसी भी मुंगेरीलाल को कोई भी कांग्रेसी-कबीले का सरदार
मानने को तैयार नहीं होगा। राहुल को भले ही लगता हो कि वे जिस पर मेहरबान हो जाएंगे,
वही पहलवान बन जाएगा, मगर कांग्रेसी धरती की मूल-धड़कन अब ऐसी है नहीं। ख़ुद पर मेहरबान
हो कर राहुल ख़ुद को तो हिंद-केसरी बनाए रख सकते हैं, मगर अपनी इस मेहरबानी को किसी
की भी झोली में हस्तांतरित कर उसे सर्व-स्वीकार्य बना पाने की स्थिति में, माफ़ करिए,
वे नहीं हैं।
अगर ऐसा होता
तो राहुल ने जिस तरुण-मंडली को पिछले एक दशक में अपने बजरंग-बाण से लैस किया, वह आज
कांग्रेस की नाव को अपने भुजा-बल के सहारे आसानी से खे रही होती। मगर हुआ यह कि राहुल
के किए मंथन से निकले अमृत का पान इस मंडली के वीरों को, अमरता प्रदान करना तो दूर,
दीर्घजीवी भी नहीं बना पाया। उनमें से कई तो नाव से कूद कर भाग गए और कई कूदने की उकड़ू-मुद्रा
में आज भी बैठे हुए हैं। वे किसी भी समय बाहर छलांग लगा देंगे।
कांग्रेस में
राहुल से किसी को भी गुरेज़ नहीं है। कांग्रेस में प्रियंका से किसी को भी परहेज़ नहीं
है। राहुल-प्रियंका के सब साथ हैं। लेकिन सिर्फ़ उनके। जब मसला आता है उनके पसंदीदाओं
का, बात तब बिगड़ती है। सात साल से ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’
का यह खेल झुलसन की हदें छू रहा है।
जब राहुल को लगता है कि उनके चुने लोगों को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल रहा है तो वे अपने
चयन के प्रति ज़िद की हद तक आग्रही हो जाते हैं। बाकियों का मानना है कि राहुल अपनी
पसंद के लोगों को ज़रूर ज़िम्मेदारियां दें, मगर उन्हें झटक कर बाहर न करें, जिन्हें
उनके पसंदीदा पसंद नहीं करते हैं। बस, यही कांग्रेस की इस दशक की मुसीबत का मूल-मर्ज़
है। 2014 के नहीं, मगर 2019 के चुनावी नतीजे मनःस्थितियों के इन्हीं दो चरम-ध्रुवों
का परिणाम थे।
इस बीच लगातार
गहन होती गई राहुल की आग्रही-मनोवृत्ति की कमज़ोरी से अपने को मजबूत बनाने में माहिर
अंतर्गुट की कई दुरात्माएं आज शिखर-कंठीमाल की शोभा बन बैठी हैं। जिस दिन राहुल अपनी
तस्बीह को इन दुष्टमतियों से मुक्त कर लेंगे, कांग्रेस का तो होगा ही, उनका भी उद्धार
हो जाएगा। चार-चार, पांच-पांच दशक से अपनी स्थिरता पर आंच न आने देने वाले कांग्रेसी-चेहरे
तीन-तीन, पांच-पांच साल में पूरे आकाश पर छा गई अस्थिरता-पगी घटाओं को कैसे बरदाश्त
कर लें? अगर इन घटाओं में ऐसा ही जीवन-जल होता तो कांग्रेस का खेत लहलहा न रहा होता!
सो, कृत्रिम बारिश कराने की कोशिषों से निज़ात पाने का वक़्त अब तो कम-से-कम आ ही चुका
है।
इसमें क्या धरा
है कि किस-किस ने कांग्रेस को कब-कब और कितना-कितना चूस लिया? इस पर 18 नहीं तो 9 पुराण
तो मैं ही लिख सकता हूं। लेकिन उन पुराणों में यह ज़िक्र भी तो होगा कि कांग्रेस का
रस चूस कर अपने गाल गुलाबी करने वालों में से कितनों के हल-बक्खर ने कांग्रेसी खेत
को जोता, बोया, सिंचाई की, फ़सल को देखा-भाला और अनाज के दानों से फूस को अलग किया;
और, ऐसे कौन-कौन थे, जो डांस-बार मानसिकता लिए लहराते हुए आए, सिर्फ़ रसपान किया और
अपनी आंखों के डोरे लाल होते ही झूमते-झामते अपने-अपने घरों को लौट गए। जिन्होंने एक
भी दिन खेत की मेड़ पर नहीं गुज़ारा। जिन्होंने एक भी रात मचान पर नहीं बिताई। वैचारिक
शास्त्रीय संगीत के पक्के रागों का बरसों से अभ्यास कर रहे रियाज़दारों की तुलना क्या
हम कलाई पर गजरा बांध कर घूम रही इस टोली के लुंगाड़ों से करेंगे?
राहुल-प्रियंका
में नेहरू, इंदिरा और राजीव का अनुवंश है। वे इंदिरा गांधी के पोते-पोती हैं। वे राजीव
गांधी के पुत्र-पुत्री हैं। उनके लिए यह धरोहर मामूली नहीं है। अपनी दादी और पिता पर
उनका हक़ स्वाभाविक है। लेकिन जितना हक़ उनका है, क्या उससे कम हक़ कूछ दूसरों है? कांग्रेस
में आज भी वे लोग मौजूद हैं, जो अपने को इंदिरा गांधी का दत्तक पौत्र-पौत्री या पुत्र-पुत्री
मानते हैं और ऐसे भी, जिन्हें लगता है कि राजीव उन्हें अपने भाई-बहन का दर्ज़ा दिया
करते थे। राजीव गांधी के बाद, पिछले 29 साल से सोनिया कांग्रेस के भीतर सर्वमान्य सम्मान
के सिंहासन पर बैठी हैं। दो दशक तक उन्होंने कांग्रेस की सफलतम अगुआई की है। सो, ऐसे
भी अनगिनत हैं, जो इस भाव से भीगे हुए हैं कि वे सोनिया के स्नेह-पात्र हैं। वे इसीलिए
राहुल के तो तन-मन से साथ हैं, मगर आसपास की मंडली के चंद निकम्मों की ताबेदारी को
तैयार नहीं है।
मुझे लगता है
कि ऐसा नहीं है कि राहुल कांग्रेस के इस बीजगणित को नहीं समझते हैं। मुझे लगता है कि
ऐसा भी नहीं है कि राहुल को यह नहीं मालूम है कि बीजगणित की इस प्रश्नावली को कैसे
हल किया जाता है। जानते वे सब हैं, मगर मुझे लगता है कि कुछ ग़ैरज़रूरी हठ उनके आड़े आ
रहे हैं। उन्हें यह सुविधा है कि वे कांग्रेस के गुंबद को अपनी मर्ज़ी का आकार देने
के लिए 2024 और 2029 तक का इंतज़ार कर लें। तब तक सब थक चुके होंगे–कांग्रेस
के भीतर भी और बाहर भी। लेकिन क्या कांग्रेस यह विलासिता भोगने में समर्थ है कि आराम
से हाथ-पर-हाथ धरे बैठी रहे?
इसलिए समय रहते
राहुल-प्रियंका को मौजूदा यथास्थिति का समाधान खोजना होगा। विलोम-भावों की हिमशिखा
से टकरा चुके कांग्रेसी-टाइटैनिक को बचाने के लिए सोनिया ने अपना अंगद-पांव पटकने में
अब ज़्यादा देर की तो जहाज का मस्तूल आज की गड्डमड्ड लहरों के हवाले होने से अंततः
कैसे बचेगा? यह बाल-हठ और राज-हठ की आंतरिक लहरों पर अठखेलियों का वक़्त नहीं है। यह
समय भारत के जनतंत्र को कालनेमि-अवरोध से बचाने का है। यह अपना-तेरी का वक़्त नहीं
है। यह हिल-मिल कर उस बवंडर को माक़ूल जवाब देने का समय है, जिसने छह साल से देश की
शिराओं को सुन्न करने में काफी कामयाबी हासिल कर ली है। कांग्रेस पंगु होगी तो मुल्क़
अपाहिज हो जाएगा। जो इस सच्चाई से आंखें फेरेंगे, आने वाली नस्लों से अन्याय करेंगे।
अन्याय का यह एक पाप सात महापापों से भी बढ़ कर होगा। उसे धोने को हम कौन-सा मानसरोवर
ले कर आएंगे और कहां से ले कर आएंगे?
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