August 8, 2020
क्या इस बात से आप को कोई फ़िक्र नहीं हो रही है कि
इस बुधवार को बड़े-बड़े कांग्रेसी-पुरोधाओं ने ख़ुद को राम-भक्त साबित करने के लिए इतनी
ज़ोर-ज़ोर से ताली-थाली बजाई कि गगन कांप गया? गगन जितना कांपा, कांपा, मुझे तो लगा कि
अगर कांग्रेस के सच्चे वैचारिक-आचार्य भी नरेंद्र भाई मोदी के सियासी-शातिरपन के चलते
भीतर से इस क़दर कांप गए हैं कि उन्हीं की धुन पर ताताथैया करने लगे हैं तो फिर अब प्रभु
राम कांग्रेस के मालिक हैं। एक अकेले राहुल गांधी ने राम मंदिर के भूमिपूजन पर निसार
होते हुए नहीं, मर्यादा के प्रतीक भगवान राम की याद करते हुए खुल कर कहा कि प्रेम,
करुणा और न्याय तथा घृणा, कू्ररता और अन्याय की प्रतीक-शक्तियों में फ़र्क़ करना हमें
सीखना ही होगा।
बाकी तो ज़्यादातर
कांग्रेसी-पुरोहितों ने जय सियाराम का नारा बोलते हुए एक-दूसरे से ऊंची छलांग लगाने
का जौहर दिखाया। वे भारत के शाश्वत-विचारों को अपने साथ लेकर सामूहिक-चिता में भस्म
हो जाने के लिए दिन भर उचक-उचक कर कूदते रहे। प्रियंका गांधी तक से उन की अधकचरी विद्वत-परिषद
ने अयोध्या में भूमिपूजन के एक दिन पहले पूरे एक पन्ने का संदेश जारी करवा दिया, जिसका
समापन प्रियंका ने अपने हस्ताक्षर के साथ ‘जय सियाराम’ का शंख बजा कर किया। संदेश के बाकी के चार अनुच्छेदों
में हमें विस्तार से बताया गया कि राम की कथा किस तरह अनंत है, राम किस तरह त्याग,
कर्तव्यपरायणता और पराक्रम के प्रतीक हैं और राम कैसे सब के हैं। अन्यथा साफ़ग़ोई के
लिए जानी-मानी जाने वाली प्रियंका को भी संकेतों में सिमटी बातें कहने से ज़्यादा साहस
नहीं जुटाने दिया गया।
मैं तो यह देख
कर सिहर गया हूं कि जिस दिन ‘सारथी’ नरेंद्र भाई तीन दशक पुरानी रथ यात्रा के रक्त-बीजों की अयोध्या में
प्रमुख जजमान बन अंतिम आहुतियां दे रहे थे, उस से एक दिन पहले से कांग्रेस की बहुत-सी
प्रदेश और ज़िला इकाइयों के दफ़तरों में हनुमान चालीसा के पाठ शुरू हो गए और भूमिपूजन
वाले दिन रामलला की आरती उतार कर शंखनाद हुए। कांग्रेस कार्यालयों की दीवारें प्रभु
श्रीराम के सौ-फुटा चित्रों से पट गईं। ढोल-ढमाकों के साथ कांग्रेस ने भी अपने को राम-मय
घोषित करने का शंखनाद किया।
राम मेरे भी
आराध्य हैं। उन्हें मैं भी पूजता हूं। मगर मैं जानना चाहता हूं कि वंदे मातरम और भारत
माता की जय के अंकुर हमारी धरती में रोपने वाले एक राजनीतिक संगठन को अगर किसी नरेंद्र
भाई के चक्कर में और ज़ोर-ज़ोर से स्वतंत्रता के इन मंत्रों का जाप अपने को राष्ट्रवादी
साबित करने के लिए करना पड़े तो भीतर के इस भय को आप क्या कहेंगे? इसी तरह, राम में
अपनी आस्था का प्रमाण देने के लिए सर्वधम समभाव की चिरंतन कर्तव्यनिष्ठा से बंधे एक
राजनीतिक संगठन को अगर ऐसी उछलकूद मचानी पड़ जाए तो भीतर हो रही इस धुकधुक को आप क्या
कहेंगे?
इस सब में जीत
कौन रहा है? इस सब में हार कौन रहा है? सिंहासन हासिल करने के लिए किसी भी हद तक जाने
वाले, किसी भी उपादान का कैसा भी इस्तेमाल करने वाले और किसी की भी कोई परवाह न करने
वाले नरेंद्र भाई तो अपनी वोट-बटोरू राजनीति के लिए जो कर रहे हैं, सो, कर रहे हैं।
मगर उनसे इस दौड़ में मुक़ाबला करने की होड़ में कांग्रेस बुनियादी मूल्यों की स्थापना
का संघर्ष हार रही है। कांग्रेस भी अगर नरेंद्र भाई के पसारे जालबट्टे में फंस जाएगी
तो जनतंत्र का क्या होगा? कांग्रेस भी अगर नरेंद्र भाई के इस अड़सट्टे में गोल-गोल घूमने
लगेगी तो भारत को इस बावड़ी से बाहर कौन निकालेगा?
कांग्रेस के
अंतर्मन में तो यह विश्वास होना चाहिए कि उसके राम-पन पर, उसके सनातन-पन पर और उसके
सर्वसमावेशी-पन पर कोई धब्बा कभी नहीं रहा है। लेकिन यह तो ऐसा लग रहा है, गोया कांग्रेस
किसी पाप का प्रायश्चित कर रही हो! अक़्िलयतों को उनका हक़ दिलाने का संघर्ष दने वालों
ने पाप किया है या नस्लवादी मानसिकता के चलते उनका हक़ मारने वालों ने? अधिकारों की
लड़ाई में दलितों और वंचितों के साथ खड़े रहने वालों ने पाप किया है या अपने जातिगत वर्चस्व
को कायम रखने के लिए उन्हें हर तरह से कुचलने वालों ने? निर्धन के बल-राम बन कर ग़रीबों
का सहारा बनने वालों ने पाप किया है या मीलों लंबी सड़कों पर उन्हें राम-भरोसे छोड़ देने
वालों ने? सो, अपराध-बोध किस बात का?
राजनीति, राज-नीति
है। वह एक गंभीर-कर्म है। वह समाज के सुचारु संचालन का धर्म है। इस धर्म-पालन के निश्चित
नियम और परंपराएं हैं। उसके अनुष्ठान की तय विधियां हैं। जिन्हें राजनीति को लगातार
छिछला बनाने में आनंद आता हो, वे इस मर्म को नहीं समझ सकते। जिस विचारधारा पर कांग्रेस
चल रही है, वह कांग्रेस की विचारधारा नहीं है। वह जम्बू द्वीप के भरत-खंड का मूल चिरंतन
विचार है। यह विचार कांग्रेस से नहीं उपजा है। कांग्रेस इस विचार से उपजी है। कांग्रेस
बाद की है। विचार पहले का है। जो इस विचार के आराधक हैं, वे इसलिए कांग्रेस के साथ
हैं कि कांग्रेस इस विचार की वाहक है। जब-जब भारत के इस बुनियादी विचार से कांग्रेस
का विचलन होगा, विचारवान निराश होंगे।
भारतीय जनता
पार्टी की विचारधारा हमारे देश की शाश्वत मूल-धारा कभी नहीं रही। उसकी विचारधारा को
भाजपा के पितृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जन्म दिया है। जो विचारवान नहीं हैं,
वे संघ-विचार के अनुचर हैं। विचारहीन चूंकि बहुमत में हैं, इसलिए भाजपा के खेत की फ़सल
लहलहाती है। मगर अपने सियासी मक़सद पूरे करने के लिए गढ़ी गई विचारधारा में और पुरातन
परंपराओं से सदियों में आकार लेने वाली विचारधारा में बहुत फ़र्क़ होता है। सत्ता कब्ज़ाने
के लिए रची जाने वाली रंगबिरंगी तात्कालिक विचारधाराओं का इतिहास कोई आज का तो है नहीं।
मगर उनमें से कितनी विचारधाराएं हैं, जो हज़ारों-हज़ार बरस तक अपना प्रभाव बनाए रख पाईं?
सौ-डेढ़ सौ बरस में उन सभी ने या तो अपना दम तोड़ दिया या अपना चोला बदल लिया। सांस्कृतिक
क्रंाति के बहाने बनने शुरू हुए ये विचार-टीले अंततः भरभरा कर गिर गए। इसलिए कि वे
सिर्फ़ रेत-महल थे। उनकी बुनियाद के ढोल में ग़जब की पोल थी। यही हाल संघ-विचारधारा
है। इसलिए उसका भी हश्र आख़िकार यही होना है।
और, इसीलिए मैं
मानता हूं कि कांग्रेस को घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसे तो बस अपने को वैचारिक-स्खलन
से बचाना है। घबरा तो नरेंद्र भाई गए हैं। वे सियासी बेताल से इतने डर गए हैं कि देवताओं
के जागने का इंतज़ार करने को भी तैयार नहीं हुए। उन्हें राम मंदिर का सारा श्रेय स्वयं
हड़पने की हड़बड़ी में दो महीने भी भारी पड़ने लगे। उन्हें चिंता थी कि इस बार लालकिले
से बोलेंगे क्या? लक्ष्मी जी उनकी उद्दंडता की वज़ह से रूठ कर चली गई हैं। विषाणु को
घंटियां बजा कर वे भगा नहीं पाए हैं। बेरोज़गारी का दैत्य उन्हें निगलने को बैठा है।
सरहदें उन्हें समझ में ही नहीं आ रही हैं। अगर नरेंद्र भाई अयोध्या में अपनी नटबाज़ी
का साष्टांग करतब दिखाने न जाते तो घनघोर खदबदाते लावे पर बैठे देश के सामने इस बार
के स्वतंत्रता दिवस पर किस मुंह से जाते? सो, उन्हें जो करना है, करने दीजिए। कांग्रेस
को इस गरबे में शामिल हो कर झेलम बजाने की ज़रूरत नहीं है। जो ऐसा करने की सलाह देते
हैं, उनकी वैचारिक-दृढ़ता के ढुलमुलपन पर, किसी को आ रही हो, न आ रही हो; मुझे तो शर्म
आ रही है।
No comments:
Post a Comment