September 12, 2020
मध्यप्रदेश में भारतीय
जनता पार्टी की
सरकार के मुख्यमंत्री
शिवराज सिंह चौहान
ने एक अख़बार
के मालिक-संपादक
के निधन के बाद उनके
परिवार से भोपाल
का सरकारी बंगला
फटाफट खाली करवा
लिया। आभासी-संसार
की मीडिया चौपालों
पर इस बहस का धुंआ
उठा कि पत्रकार-परिवार से
अन्याय हुआ है। प्रतिकार करने वालों
ने यह कह कर प्रत्युत्तर-हुनर दिखाया
कि सरकारी सुविधाएं
लेने से बड़ा पाप तो
पत्रकारों के लिए
कुछ हो ही नहीं सकता।
सो, वे सरकार
से मक़ान लेते
ही क्यों हैं?
और, सरकार उन्हें
मक़ान देती ही क्यों है?
कुछ ने कहा कि सरकारी
आवास तो सरकारी
कर्मचारियों के लिए
बनाए गए हैं। सो, दूसरों
को क्यों मिलें?
कइयों ने अपनी तोप से
सवालों का गोला दागा कि
राजनीतिक पदों पर
आसीन लोग ज़िंदगी
भर सरकारी बंगलों
पर कब्जा जमा
कर कैसे बैठे
रहते हैं? जितने
मुखारविंद, उतने प्रवचन!
इस बहस से
मैं जो समझ सका, वह
यह था कि मीडिया-जगत
की विद्वत परिषद
के मूर्धन्यों का
बहुमत मानता है
कि पत्रकारिता एक
पवित्र-कर्म है,
पत्रकारों को गुरु
वशिष्ठ की कपिला
गाय की तरह पावन होना
चाहिए और प़त्रकारीय
मूल्यों की रक्षा
के लिए सरकार
जैसी आसुरी व्यवस्था
से कभी कोई सुविधा नहीं
लेनी चाहिए। मैं
कृत-कृत्य हूं
कि इस घनघोर
कलियुग में भी पत्रकारिता की पताका
को फहराते रखने
की ऐसी जिजीविषा
अब भी ज़िंदा
है। 27 साल मैं ने मीडिया
संस्थान में बाक़ायदा
या बेक़ायदा, जैसे
भी हो सका, नौकरी की
और उसके बाद
14 साल से, जिसे
हम स्वतंत्र लेखन
कहते हैं, कर रहा हूं।
मूंछों की पोरें
फूट रही थीं,
तब से। मीडिया-संसार के
तक़रीबन सारे रंग
देखे हैं। बाबावाद
के पाखंड से
इस क़दर सराबोर
ऐसा कोई दूसरा
करम-फोड़ू पेशा
मैं ने आज तक नहीं
देखा।
पशुधन
के सरकारी आंकड़े
आपको हमारे देश
में शेर, चीते,
हाथियों, वगै़रह की
गिनती तो सही-सही बता
ही देंगे; वे
यह तक बता देंगे कि
भारत में पांच
लाख गधे हैं,
सवा करोड़ सूअर
हैं, दो करोड़ कुत्ते हैं
और पांच करोड़
बंदर हैं, वगै़रह,
वगै़रह। लेकिन इसका
कोई आंकडा आपको
कहीं नहीं मिलेगा
कि देश में कितने पत्रकार
हैं। मुझे लगता
है कि नामी,
बेनामी, नक़ली, असली,
प्रच्छन्न, अप्रच्छन्न, सब मिला कर दस-बीस लाख
तो होंगे ही।
नागरिक-पत्रकारों को
भी जोड़ लें तो फिर
तो कहना ही क्या? हर
मोबाइलधारी एंकर है,
वीडियो-पत्रकार है,
हर फेसबुकधारी विशेष
संवाददाता है और
हर ब्लॉगधारी स्तंभकार।
बहुत बार वे सरंचित-व्यवस्थाओं
से जुड़े पत्रकारों
से बेहतर और
अर्थपूर्ण योगदान कर
रहे होते हैं।
अगर हम केंद्र
और राज्य सरकारों
से अधिमान्यता प्राप्त
पत्रकारों को ही
पत्रकार मानने की
ज़िद पर अड़े हों तो
भी पूरे देश
में उनकी तादाद
दो लाख से क्या कम
होगी? यानी जब हम सरकारी
सुविधाओं की हड़पू-मंडी में
टहल रहे हों तो इतना
तो मान कर चल ही
सकते हैं कि पत्रकार-बिरादरी के
कम-से-कम इतने लोगों
को तो सरकारी
सुविधाओं की ज़ाज़म
पर पसरने का
अधिकार है ही। सो, लाठी
जिसके पास है, सरकारी सहूलियतों
की भैंस भी उसी के
पास जाएगी। बाकी
का जनम टुकुर-टुकुर देखते
रहने को हुआ है तो
हुआ है। इसमें
कोई क्या करे?
तो मुद्दा क्या
है? आप मुंह में ज़ुबान
रखते हों और फिर भी
मुद्दा बताने के
लिए किसी के पूछने का
इंतज़ार करते रहें
तो आप जानें!
मैं तो इतना जानता हूं
कि जब पत्रकार
सरकारों से रियायती
दरों पर स्वास्थ्य-सुविधाएं देने की मांग करते
हैं, पेंशन योजनाएं
शुरू करने की मांग करते
हैं, रेल यात्रा
की सुविधा लेने
को तैयार हैं,
आवासीय योजनाओं के
लिए ज़मीनें लेने
को तैयार हैं,
अखबारों के नाम पर भूखंड
ले चुके हैं
और ज़्यादा-से-ज़्यादा सरकारी विज्ञापन
झटकने के लिए हर तरह
की मारा-मारी,
हिस्सा-बांट और छल-प्रपंच
करते हैं तो सरकारी मक़ान
लेने भर से उनकी गंगा
मैली कैसे हो जाएगी?
यहां
यह साफ़ कर दूं कि
मैं ने कोई सरकारी बंगला
कभी नहीं लिया।
न पत्रकार के
नाते, न किसी और नाते।
मगर फिर भी मैं पूछना
चाहता हूं कि सरकारी मक़ान
सरकारी कर्मचारियों-अफ़सरों
के लिए ही क्यों हों?
वे पदासीन या
पदच्युत राजनीतिकों के
लिए ही क्यों
हों? जनता का पेट काट
कर वसूले गए
टैक्स का सबसे बड़ा हिस्सा
उन पर ही खर्च क्यों
हो? एक कार्यकाल
में सात कार्यकालों
का इंतज़ाम करने
की सहूलियत कुलीन-गिरोह को
ही क्यों मिले?
सरकार के संसाधनों
पर समाज की सरंचना में
योगदान करने वाले
पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों, रंगकर्मियों,
कलाकारों, संगीतकारों, समाजसेवियों, खिलाड़ियों,
वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों, पुरातत्ववेत्ताओं, कृषिकर्मियों, आदि, आदि
का भी हक़ क्यों न
हो? राजनीतिक-अफ़सर
तो छींक-जुकाम
का इलाज़ कराने
भी जनता के पैसे पर
अमेरिका जाएं और पत्रकार अगर ज़रूरतमंद
है तो हृदय-चिकित्सा के लिए भी हाथ
फैलाता घूमता रहे,
ऐसा क्यों हो?
जब बाकी कोई
भौमा गाय की तरह पवित्र
जीवन शैली का पालन नहीं
कर रहा तो मीडियाकर्मी से ही यह उम्मीद
क्यों?
राज्य-व्यवस्था क्या सिर्फ़
अपनी हुक़्मरान-मंडली
और ताबेदार नौकरशाही
का ख़्याल रखने
को ही होती है? वह
अगर समाज की अन्य विधाओं
और प्रतिभाओं के
फलने-फूलने में
मदद करती है तो कोई
एहसान नहीं करती
है। देश पजामे-कुर्ते और
कोट-टाई से ही नहीं
बनते हैं। एक राष्ट्र के निर्माण
में सार्थक पत्रकारिता,
सांस्कृतिक चेतना और
सामाजिक सरोकारों की
बुनियादी भूमिका होती
है। इनकी वाहक-शक्तियों का राज्य
के साधनों पर
किसी से कम अधिकार नहीं
है। मसला सिर्फ़
यह हो सकता है कि
उनके लाभ का जल उपयुक्त
झीलों को लबालब
करे। वह अनुपयुक्त
पतनालों के हवाले
न हो। कौन नहीं जानता
कि कौन असली
है और कौन नकली? कौन
नहीं जानता कि
किसे सहारे की
ज़रूरत है और किसे नहीं?
इसलिए राज्य-व्यवस्था
के पिशाच-साये
से पत्रकारिता के
देवलोक को इतना महफ़ूज़ रखने
की छद्म-छतरी
तान कर ख़ुद को श्रेष्ठ
और दूसरों को
अस्पृश्य मान कर
फुदकना इतना भी क्या ज़रूरी
है?
हर ज़िले, प्रदेश
और देश की खूंटियों पर टंगे दो-पांच
लाख सियासी रहनुमाओं
ने, केंद्र सरकार
के 31-32 लाख अफ़सर-कर्मचारियों ने और राज्य सरकारों
के दो करोड़ से ज़्यादा
कारकूनों ने ही
हमारे देश को ऐसा कौन-सा निहाल
कर दिया कि भारत भर
में चार-छह हज़ार पत्रकारों
इत्यादि को सरकारी
मक़ान दे देने से मुल्क़
का कचूमर निकल
जाएगा? जिन मीडिया-मालिकों के फॉर्म-हाउस हैं,
उन्हें एक कोठरी
भी मत दो, लेकिन जिनके
पास रहने को नहीं है,
उन्हें देने में
काहे का गुरेज़?
जिनके पास सिंगापुर
और अमेरिका जा
कर इलाज़ कराने
का इंतज़ाम है,
उनकी तरफ़दारी कौन
कर रहा है, मगर जिंदगी
भर जो क़लम घिस-घिस
कर और सांस्कृतिक-सामाजिक जागरण में
लगे-लगे इतना
भी नहीं जोड़
पाए कि चैन से प्राण
छोड़ सकें, उन्हें
एम्स या मेदांता
में दाखि़ल करा
देने में अपना-तेरी और
मूंजीपन क्यों?
दुर्भाग्य
तो यह है कि पत्रकार
संगठनों ने अपनी घालमेली हरकतों से
ख़ुद को ख़त्म
कर लिया है।
इसलिए आज अपने हक़ भी
मेहरबानी लगने लगे
हैं। स्वतंत्र भारत
में अपनी राज्य-व्यवस्था का आलंबन
मिलने-लेने पर अपराध-बोध
कैसा? आज क्या कोई अंग्रेज़ों
की हुक़ूमत है
कि छुआ गए तो जा
कर नहाना पड़ेगा?
हम सरकार चुनते
हैं, हम सुबह-शाम खटते
रहते हैं, हमारे
पसीने की कमाई से राज्य
के संसाधन आकार
लेते हैं, हम हैं तो
हुकू़मत है, हम हैं तो
हुक़्मरानों की इंद्रसभा
है, हम हैं तो अफ़सरों
का गुलाबी बाग
है, हम हैं तो सारे
मीना-बाज़ार हैं।
सो, राज्य के
संसाधनों का आबे-ज़मज़म पत्रकारों
सहित सब को, यानी सब
को, मिलना चाहिए।
वह सियासतदांओं और
दफ़्तरशाही की बपौती
नहीं है।
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