December 5, 2020
नरेंद्र भाई
मोदी, लगता है कि, यह
समझ ही नहीं पा रहे
हैं कि किसानों
के आंदोलन ने
उनकी लोकप्रियता-दर
को पिछले दस
दिनों में कहां-से-कहां
ला पटका है?
ज़िदाबाद के नारे लगाते अनुचरों,
हां-में-हां मिलाते वज़ीरों,
लकीर के फ़कीर कारकूनों और मजीरा-वादन कर
रहे मीडिया द्वारा
प्रदत्त गुनगुने लिहाफ़
में पैर पसारे
पड़े हमारे प्रधानमंत्री
अपने ताजा राज-ऋषि रूप
पर ऐसे गर्वित
हैं कि उनकी आंखें बेतरह
उनींदी हो गई हैं। अपनी
ड्योढ़ी पर ठंड में खुले
आसमान के नीचे पड़े किसानों
की ठिठुरन इतने
निष्ठुर भाव से देखने का
पराक्रम नरेंद्र भाई
में ही हो सकता है।
सामान्य मनुष्य तो
ऐसे में कब का पानी-पानी हो
गया होता!
यह भी मान
लें कि दिल्ली
की दहलीज़ पर
डटे किसान इतने
शातिर हैं कि बात का
बतंगड़ बना रहे हैं; कि
वे कुछ राजनीतिक
शक्तियों की कठपुतली
हैं और सरकार
को नाहक बदनाम
कर रहे हैं;
कि उनके बीच
कुछ देशविरोधी तत्व
घुस गए हैं और उन्हें
भड़का रहे हैं;
तो भी क्या एक निर्वाचित
प्रधानमंत्री और उसकी
सरकार को कानों
में रुई ठूंस
कर बैठे रहने
का अधिकार हमें
देना चाहिए? अगर
यह बगूला नाहक
उठा है तो सरकार श्वेत-पत्र जारी
कर दे। अगर सियासी ताक़तों
ने किसानों को
बरगला दिया है तो सरकार
उन्हें बेनक़ाब कर
दे। अगर आंदोलन
को पीछे से राष्ट्र-विरोधी चला
रहे हैं तो सरकार उन्हें
फ़ौरन जेल भेज दे। मगर
किसानों से बातचीत
को चरण-चरण लंबा खींच
कर उनके बिखर
जाने की कुचालें
तो न चले!
मैं तो समझता
था कि जो आंदोलनों से जन्मते
हैं, उनमें असहमति
के स्वरों को
सुनने-गुनने की
एक अतिरिक्त संवेदना
होती है। लेकिन
फिर मुझे लगा
कि यह इस पर निर्भर
करता है कि कौन किस
तरह के आंदोलन
से जन्मा है!
सारे आंदोलन अर्थवान
ही नहीं होते!
अगर आपका जन्म
ऐसे आंदोलनों के
गर्भ से हुआ है, जो
सामाजिक धु्रवीकरण का
लक्ष्य रख कर रचे गए
हैं तो आप अपने जीवन
भर उसी तरह की रचनाओं
के मकड़जाल बुनने
के अलावा क्या
करेंगे? नकारात्मक मंशा
की बिसात पर
बिछाए गए आंदोलनों
से उपजे नायकों
को किसानों की
मासूम आह में भी साज़िशों
की बू नहीं आएगी तो
क्या माटी की सोंधी महक
महसूस होगी?
नरेंद्र
भाई, अब मार्गदर्शक
मंडल में ठेल दिए गए
लालकृष्ण आडवाणी के,
रथ पर बैठ कर यहां
तक पहुंचे हैं।
वे अपने तमाम
वैयक्तिक और सामुदायिक
शत्रुओं को सबक सिखाते-सिखाते
रायसीना पहाड़ियों के
लायक बने हैं।
जो उनके विचारों
के साथ नहीं
है, वे उसे असहमत की
श्रेणी में रखने
की उदारता को
मूर्खता मानते हैं।
वे मानते हैं
कि या तो आप साथ
हैं या फिर गद्दार। बीच में कुछ नहीं
होता। सब इस पार है
या उस पार। इसलिए बिना
किसानों से पूछे-ताछे जो
तीन क़ानून नरेंद्र
भाई की सरकार
ने बना दिए हैं, या
तो उन्हें वेद-वाक्य मानो,
या फिर जो करना है,
कर लो। वेद की ऋचाएं
पावन ऋषियों ने
एक बार लिख दीं तो
लिख दीं। उनमें
संशोधन का हक़ क्या अब
इन पतित किसानों
को दे दें?
इसलिए
आपको जितनी आस
लगानी हो, लगा लीजिए; मुझे
पूरा विश्वास है
कि नरेंद्र भाई
किसानों के सामने
कतई नहीं झुकेंगे।
किसानों के लिए तीन क़ानून
उन्होंने कोई बैठे-ठाले नहीं
बनाए हैं। पूरी
तरह सोच-समझ कर बनाए
हैं। ये क़ानून
खेती-किसानी के
अमेरिकी सपने को भारत की
धरती पर उतारने
के लिए बने हैं। ये
दुनिया भर में महानगरीकरण के समर्थकों
के ख़्वाब-बीजों
को अंकुरित करने
के मक़सद से बने हैं।
इनके पीछे गांवों
और कस्बों के
भावनात्मक संसार को
तबाह कर मशीनी
शहरों की बेमुरव्वत
कतार खड़ी करने
की सोच का हाथ है।
अगर खेती की शक़्ल ऐसी
ही रहेगी; अगर
किसान, फटेहाली में
ही सही, ज़िदगी
बसर करता रह सकेगा; तो
शहरों को अपने दिहाड़ी-कर्मी
कहां से मिलेंगे?
सो, शहरों की
शामें गुलज़ार रखने
के लिए खेतों
की सुबह तो बर्बाद होनी
ही है। जब अमेरिका में सिर्फ़
दो प्रतिशत लोग
ही किसान रह
गए हैं तो भारत में
55 प्रतिशत को किसान
बने रहने की इजाज़त कैसे
दी जा सकती है? इसलिए
खेती अब किसान
नहीं, अंबानी-अडानी
करेंगे। खेत उनके
होंगे, उपज उनकी
होगी, दाम उनके
होंगे। आपका तो बस चाम-ही-चाम
होगा। दो बीघा ज़मीन के
ही सही, अभी
मालिक तो हैं। सो, यह
स्वामित्व-भाव समाप्त
करना ज़रूरी है।
हम में दास-भाव जब
तक नहीं पनपेगा,
सुल्तानों का संसार
कैसे चलेगा?
आपने
देखा नहीं कि लाखों स्क्वेयर
फुट की चमकीली
इमारतों से चलने वाली विपणन
श्रंखलाओं ने भारत
के खुदरा बाज़ार
की क्या हालत
कर डाली है?
अपनी छोटी-मंझली
पंसारी-दूकान चलाने
वाला अब दूसरों
के महल-बाज़ार
में नौकर बन कर खड़ा
है। आपने देखा
नहीं कि ऑनलाइन-मार्केट के महिषासुरों
ने कैसे सारे
टापुओं को लील डाला है?
बाज़ार के शब्दकोष
से ‘बिचौलिया’ जैसा नाक-सिकोड़ू शब्द
हटाने का पवित्र
उपक्रम करने के बहाने जो
हो रहा है, वह संस्थागत-बिचौलियों को सुदृढ़
बनाने के लिए है। रामनिवास
और घसीटाराम को
तो आप बिचौलिया,
आढ़तियां, दलाल, कमीशन
एजेंट, कुछ भी कह लेंगे;
मगर मुकेश भाई
अंबानी और गौतम भाई अडानी
को इन नामों
से पुकारते वक़्त
आपकी ज़ुबान ख़ुद
ही कट नहीं जाएगी? कारोबार
का मूल-चरित्र
भले ही वही हो, सबकी
भाभी तो ग़रीब की जोरू
ही समझी जाती
है।
खेती
को सांस्कृतिक उत्सव
मानने के दिन अब लद
रहे हैं। अब वह कलियुगी
कारोबार बनेगी। यह
किसान से अन्नदाता
का ख़िताब वापस
ले कर उसे अंबानी-अडानी
की पगड़ी पर टांकने की
तैयारियों का दौर
है। सरमाएदारों की
हुकूमतें हमेशा इस
यक़ीन पर चलती हैं कि
जो भी उनसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा।
मगर बहुत बार
सितारों की चाल उलटी भी
हो जाती है।
जब-जब ऐसा होता है,
दूर-दूर तक यह पता
तक नहीं चलता
है कि कब, कौन, कहां,
किससे टकरा कर चूर-चूर
हो गया। मुझे
आगत के आसार ऐसे ही
चूर-चूर दौर के दिखाई
देते हैं। पिछले
छह साल से रिस-रिस
कर इकट्ठा हो
गए क्षोभ का
यह संकेद्रण इतना
गहरा गया है कि अगले
छह महीने बीतते-बीतते न
जाने कैसे-कैसे
आंदोलन आकार लेते
हम-आप अपनी आंखों से
देखेंगे।
घाघ-भड्डरी के
बारे में जो जानते हैं,
वे जानते हैं
कि उनका कहना
था कि ‘‘खेती
पाती बीनती, और
घोड़े की तंग; अपने हाथ
संभारिए, लाख लोग
हों संग।’’ खेती, प्रार्थना
पत्र और घोड़े की लगाम
को अपने ही हाथ से
ठीक करना चाहिए।
इन मामलों में
दूसरों पर भरोसा
ठीक नहीं। उन्होंने
एक बात और कही है।
‘‘सावन मास बहे पुरवइया, बछवा बेच
लेहु धेनु गइया।’’ अगर सावन महीने
में पुरवैया हवा
बह रही हो तो अकाल
पड़ेगा। इसलिए किसानों
को चाहिए कि
वे अपने बैल
बेच कर गाय खरीद लें।
अब जब प्रार्थना
पत्र अपने हाथ
में थामने को
हमारे शासक तैयार
ही नहीं हैं
और सावन के मौसम में
भी पूरब से आने वाली
गर्म हवा के झौंके अपनी
उपस्थिति ज़ोर-शोर
से दर्ज़ कराने
लगे हैं तो क्या किसानों
को सचमुच अपने-अपने बैल
बेचने की तैयारियां
शुरू कर देनी चाहिए? हमारी
पूरी संस्कृति की
बुनियाद ही कृषि-कर्म पर
टिकी है। हमारे
सारे त्योहार, कर्म-कांड, मेले-उत्सव और
नृत्य-गान किसानी-बागवानी की माला के मनके
हैं। इस तस्बीह
के दाने बिखेरने
वालों को क्या हम ऐसे
ही भूल जाएंगे?
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