November 7, 2020
मुझे अर्णव
गोस्वामी से सहानुभूति
है। अर्णव गुस्से
के नहीं, दया
के पात्र हैं।
उनके किए पर दांत भींचने
के बजाय कृपया
उन पर तरस खाइए। वे
प्रतिभा, योग्यता और ऊर्जा
के चरम स्खलन
का नमूना हैं।
वे प्रतापी, पराक्रमी,
बलशाली, शास्त्र-ज्ञाता,
और पंडित-महाज्ञानी
पुलत्स्य-पुत्र के
दशाननीकरण की कलियुगी
मिसाल हैं। पिछले
साढ़े छह बरस की कुसंगति
के कारण अगर
अर्णव की सोच-प्रक्रिया पर दंभ के दैत्य
ने कब्ज़ा न कर लिया
होता तो आज उनका यह
हाल न होता। पीठ पर
राज-दरबार का
हाथ होने की मद-मस्ती
ने उनका माथा
ऐसा फिरा दिया
कि वे अपने रचे बेतरह
खारे समंदर में
डूबने से अंततः
अपने को बचा नहीं पाए।
दो उंगलियां खड़ी कर के विजय-संकेत दिखाना
आसान है, मगर अर्णव का
दिल ही जानता
होगा कि उन पर क्या
बीत रही है। लगने को
उन्हें भले लगे कि पूरा
भारत उनके साथ
है, मगर असलियत
यह है कि कोई उनके
साथ नहीं है।
जो उनका दुरुपयोग
कर रहे हैं,
उन्हें तो साथ का दिखावा
करना ही होगा।
सो, अर्णव की
हिमायत में बहुत-से नामी-गिरामियों के बयान बह रहे
हैं और थोड़े दिन बहते
रहेंगे। छुटुर-पुटुर
जंतर-मंतरी पथ-प्रदर्शन हो रहे हैं और
कुछ दिन होते
रहेंगे। ऐसे सभी वक्तव्यों और जुलूसों
पर मुझे कोई
आपत्ति नहीं है।
बस, यह चिंता
है कि इससे अर्णव की
मौजूदा मनोदशा और
ख़राब होने का खतरा और
बढ़ रहा है। वे जिस
संजीदगी भरे स्वाधीनता
सेनानी भाव से अन्याय के
ख़िलाफ़ देश की जनता से
आवाज़ उठाने का
आह्वान पुलिस-वैन
की जाली के पीछे से
कर रहे थे, वह उनकी
मानसिक स्थिति के
लिए घातक है।
चार दशक का
पत्रकारीय अनुभव मुझे
बताता है कि शायद ही
कभी कोई ऐसा वक़्त रहा
हो, जब हुक़्मरानी-व्यवस्था ने छोटे-से-छोटे
और बड़े-से-बड़े पत्रकार
की पीठ थपथपा
कर अपना काम
निकालने की कोशिश
न की हो। राजनीति का रंग जब जैसा
रहा हो, अपने
हक़ में मीडिया
के इस्तेमाल की
नीयत एक-सी रही है।
तौर-तरीक़े अलग
होते हैं, रीति-रिवाज़ अलग
होते हैं, मगर
सियासत की हवस के मूलाधार
में कोई फ़र्क़
नहीं होता है।
आज के दौर का दुर्भाग्य
सिर्फ़ इतना है कि दुशासनी
आंखों के कामुक
डोरे एकदम अनावृत्त,
लीचड़ और बलात्संगी
हो गए हैं। अपनी सभा
में नाचने वाली
अप्सराओं के प्रति
इंद्र के भीतर कितनी पवित्र
श्रद्धा का झरना झरता होगा?
अर्णव इत्ता-सा
मर्म जान लेते
तो अपने को
‘चाय से भी ज़्यादा गरम केतली’ रूपांतरित नहीं होने
देतेे।
पत्रकारिता
के जो परखच्चे
अर्णव ने छह-सात साल
में बिखेरे, पीत-पत्रकारों की पूरी फ़ौज मिल
कर 240 साल में उसका रत्ती
भर भी नहीं बिखेर पाई।
स्वतंत्र विचार को
मंच मुहैया कराने
और अभिव्यक्ति की
आज़ादी का झंडा लहराने के
मक़सद से 1780 में
कोलकाता से भारत का पहला
मुद्रित समाचार पत्र
‘बंगाल गजट’ निकालने वाले
जेम्स आगस्टस हिकी
की आत्मा सातवें
आसमान से अर्णव
को लानतें भेज
रही होगी। इस
एक नवंबर को
अर्णव ने मुझे जब दोपहर
के अपने रविवारीय-शो में
बुलाया तो मेरा क्रम आने
तक वे सुहैल
सेठ की रिपब्लिक-आरती और
शाज़िया इल्मी के
व्यापक-दर्शन की
फुहारों की गदगद-ख़ुमारी में
डूब चुके थे।
मैं ने पुरज़ोर
सवाल फेंका कि
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
जैसी पावन अवधारणा
का ज़िक्र अपनी
ज़ुबान से करने का उन्हें
तो कम-से-कम कोई
हक़ है ही नहीं, क्यों
कि इसी की हत्या तो
वे हर रोज़ अपने मंच
पर करते हैं
तब जा कर उनकी तंद्रा
टूटी। इस बीच मैं अर्णव
से यह भी कह चुका
था कि आज पूरे देश
में सिर्फ़ उन्हीं
की करतूतों की
वज़ह से पहली बार यह
बहस आकार ले रही है
कि अब जब स्व-नियमन
के सारे प्रयास
विफल हो गए हैं तो
मीडिया के सुसंचालन
के लिए किस तरह के
इंतज़ाम होने चाहिए।
इसके बाद अर्णव
ख़ुद के बचाव और ज़िरह
की अपनी पारंपरिक
शैली पर आ गए, जिसमें
हाथ-पैर फेंकना,
चीखना-चिल्लना और
असहमतियों के स्वरों
का वॉल्यूम बेहद
धीमा कर देने के हथकंडे
शामिल हैं।
बेहूदे
आरोपों, भाषा के मवालीपन, देह-मुद्राओं
के पागलपन और
ख़ुद को खुदा समझने के
सनकीपन ने अर्णव
को आज के पतनलोक तक
पहुंचाया है। मौजूदा
सत्ताधीशों के कंधे-से-कंधा
मिला कर कुछ दूर चलने
का मौक़ा मिलने
से उन्हें भी
लगने लगा कि एकलखुरा होने से आप जल्दी
महान बन सकते हैं, मनमानापन
आपको और जल्दी
महान बनाता है,
किसी भी और की न
सुनने से आपकी महानता में
निखार आता है, स्वयं को
सर्वज्ञानी मान कर
चलने से महानता
की राह गद्देदार
हो जाती है और निष्ठुरता,
उद्दंडता और अवमानना
के दुर्गुण महान
बनने के मूल-घटक हैं।
अर्णव को भी अपने आराध्य
की तरह स्वयं
की अथाह लोकप्रियता
का ग़ुमान हो
गया। उन्हें भी
लगने लगा कि पूरा गणराज्य
उन पर रीझा हुआ है
और तमाम कायनात
उनकी सर्वप्रियता का
मजीरा बजा रही है।
अर्णव
भूल गए कि प्रतिभा के उजलेपन
का गन्ना चूस
कर उसे किनारे
फेंक देना सियासी
व्यवस्था का मूल
चरित्र है। जब से सियासत
विचार-सिद्धांतहीन छुटभैयों
के बिस्तर पर
पड़ी है, तब से तो
संस्कार शब्द ही राजनीतिक शब्दकोष से
विदा हो गया है। अर्णव
को मालूम नहीं
है कि उनकी भूमिका अब
पूरी हो गई है। उनसे
जो कराना था,
भाई-लोगों ने
करा लिया। अर्णव
कुशल घुड़सवार होते
तो गरिमा के
साथ घुड़दौड़ में
बने रहते। मगर
वे बहुत हड़बड़ी
में थे। वे भी पच्चीस
साल का रास्ता
पांच साल में तय करने
पर आमादा थे।
वे भी बिना आगा-पीछा
सोचे आत्ममुग्ध-भाव
से अपना छप्पन
इंच का सीना ठोक रहे
थे। इसी अति-आत्मविश्वास के चलते उन्हें भी
कभी यह अहसास
नहीं हुआ कि दरअसल वे
हास्यास्पद होते जा
रहे हैं, अपने
चाहने वालों का
विश्वास खोते जा रहे हैं
और जिसे वे अपना पौरुष
समझ रहे हैं,
लोग उसमें उनका
सूरमा-भोपालीकरण देख
रहे हैं।
अर्णव
को ज़मानत तो
मिलनी ही है और वे
बाहर आ जाएंगे।
अपने स्टुडियो में
बैठ कर वे बौद्धिक-विदूषक का
किरदार भी ज़ोरशोर
से फिर निभाना
शुरू कर देंगे।
मगर अब वे काई सनी
उस बावड़ी से
ताज़िंदगी बाहर नहीं
आ पाएंगे, जिसमें
अपने ‘मितरों’ की वज़ह से वे
गिर पड़े हैं।
उनकी हांडी का
काठ अब बेतरह
झुलस गया है। भारतीय गणराज्य
के चूल्हे पर
अब वह दोबारा
चढ़ने लायक नहीं
रह गई है। इसलिए आप-हम साल-दो-साल
में वह दृश्य
देखने को शापग्रस्त
हैं, जब अपने उत्तर-जीवन
का संघर्ष करते
एक डॉन क्विक्ज़ोट
को राजसूय की
अग्नि-लपटें पूरी
तरह लील गईं।
अर्णव
के ताज़ा हाल
पर संतुलन की
नटबाज़ी कर रहे छद्मवेषियों पर मुझे और भी
ज़्यादा रहम आ रहा है।
बेचारों को गुट-निरपेक्ष बने रहने
में ही दोनों
बिल्लियों की रोटी
खा सकने वाला
अपना बंदरत्व सुरक्षित
लग रहा है। ऐसे घिघियाते-मिमियाते लोगों से
तो वे बेहतर
हैं, जो खुल कर या
तो अर्णव के
खि़लाफ़ अपनी राय
ज़ाहिर कर रहे हैं या
उनकी हिमायत में
नंग-धड़ंग खड़े
हैं। ऐसे शाब्दिक
वस्त्राभूषण किस काम
के, जो आपके शील की
गरिमा भी क़ायम न रख
सकें? ऐसे बुद्धिजीवियों
से तो बुद्धिहीन-तन अच्छे।
अर्णव-प्रसंग के
निजी पहलुओं को
जाने दीजिए भाड़
में। इस आयाम पर ग़ौर
कीजिए कि इस बहाने हमारे
पूरे व्यवस्था-शास्त्र
के पन्नों पर
लिखी इबारत की
सच्चाई सामने आ गई है।
अर्णव अगर अब भी इस
सच का ताबीज़
अपने गले में बांध लें
तो शायद टीवी
पत्रकारिता और उनका
ख़ुद का कुछ कल्याण हो
जाए। वरना उनसे
प्रेरित हो कर बाक़ी जितने
खरबूजों ने भी अपने को
उसी रंग में रंग लिया
है, उन सभी के दिन
लदे समझिए।
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