पंकज
शर्मा
December 12, 2020
इस बृहस्पतिवार
की दोपहर मैं
ने नए संसद भवन के
निर्माण का भूमि-पूजन कर
उसकी आधारशिला रखने
के बाद अपने
प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी
के उद्गार बहुत
ध्यान से आद्योपांत
तब तक सुने,
जब तक कि उन्होंने अपनी वाणी
को विराम नहीं
दे दिया। मैं
इस अद्भुत अहसास
को ज़िदगी भर
भूल नहीं पाऊंगा
कि कैसे रोबोटिक
जनतंत्र के जनकराज
हमारे नरेंद्र भाई
के भीतर ठूंस-ठूंस कर
यह भाव भरा हुआ है
कि सादगी, मासूमियत
और अर्थपूर्णता की
उनकी झक्कूगिरी पर
भारतवासी बिना कुछ
सोचे-समझे यक़ीन
करते रहेंगे। लफ़ज़ों की
लच्छेदारी और करतूतों
के जालबट्टे के
बीच की इस खाई की
गहराई समझनी हो
तो आप भी नरेंद्र भाई के भाषण के
नीचे दिए हिस्सों
को ज़रा ग़ौर से पढ़िएः
‘‘भारतीयों द्वारा,
भारतीयता के विचार
से ओत-प्रोत,
भारत के संसद भवन के
निर्माण का शुभारंभ
हमारी लोकतांत्रिक परंपराओं
के सबसे अहम
पड़ाव में से एक है।… इससे सुंदर क्या
होगा, इससे पवित्र
क्या होगा कि जब भारत
अपनी आजादी के
75 वर्ष का पर्व मनाए तो
उस पर्व की साक्षात प्रेरणा, हमारी
संसद की नई इमारत बने।… नए संसद भवन
का निर्माण, नूतन
और पुरातन के
सह-अस्तित्व का
उदाहरण है। ये समय और
जरुरतों के अनुरूप
खुद में परिवर्तन
लाने का प्रयास
है।’’
‘‘मैं अपने जीवन
में वो क्षण कभी नहीं
भूल सकताए जब
2014 में पहली बार
एक सांसद के
तौर पर मुझे संसद भवन
में आने का अवसर मिला
था। तब लोकतंत्र
के इस मंदिर
में कदम रखने
से पहले मैंने
सिर झुकाकर, माथा
टेककर लोकतंत्र के
इस मंदिर को
नमन किया था।’’
‘‘पुराने संसद
भवन ने स्वतंत्रता
के बाद के भारत को
दिशा दी तो नया भवन
आत्मनिर्भर भारत के
निर्माण का गवाह बनेगा।… संसद भवन
की शक्ति का
स्रोत, उसकी ऊर्जा
का स्रोत, हमारा
लोकतंत्र है।… लोकतंत्र भारत में
क्यों सफल हुआ,
क्यों सफल है और क्यों
कभी लोकतंत्र पर
आंच नहीं आ सकती, ये
बात हमारी हर
पीढ़ी को भी जानना-समझना
बहुत आवश्यक है।’’
‘‘12वीं शताब्दी
में ही भारत में भगवान
बसवेश्वर का ‘अनुभव
मंटपम’ अस्तित्व में आ चुका था।
अनुभव मंटपम के
रूप में उन्होंने
लोक संसद का न सिर्फ
निर्माण किया था बल्कि उसका
संचालन भी सुनिश्चित
किया था। इस कालखंड के
भी और पहले जाएं तो
तमिलनाडु में चेन्नई
से 80-85 किलोमीटर दूर उत्तरामेरुर
नाम के गांव में एक
बहुत ही ऐतिहासिक
साक्ष्य दिखाई देता
है। इस गांव में चोल
साम्राज्य के दौरान
10वीं शताब्दी में
पत्थरों पर तमिल में लिखी
गई पंचायत व्यवस्था
का वर्णन है।
इसमें बताया गया
है कि कैसे हर गांव
को कुडुंबु में
कैटेगराइज किया जाता
था, जिनको हम
आज वार्ड कहते
हैं। इन कुडुंबुओं
से एक-एक प्रतिनिधि महासभा में
भेजा जाता था।
एक हजार वर्ष
पूर्व बनी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में
एक और बात बहुत महत्वपूर्ण
थी। उस पत्थर पर
लिखा हुआ है कि जनप्रतिनिधि
को चुनाव लड़ने
के लिए अयोग्य
घोषित करने का भी प्रावधान
था उस जमाने
में। नियम था कि जो
जनप्रतिनिधि अपनी संपत्ति
का ब्योरा नहीं
देगा, वो और उसके करीबी
रिश्तेदार चुनाव नहीं
लड़ पाएंगे।’’
‘‘सदियों पहले
शाक्य, मल्लम और
वेज्जी जैसे गणतंत्र हों, लिच्छवी, मल्लकए मरक
और कम्बोज जैसे गणराज्य हों
या फिर मौर्य
काल में कलिंग,
सभी ने लोकतंत्र
को ही शासन का आधार
बनाया था। हजारों
साल पहले रचित
ऋग्वेद में लोकतंत्र
के विचार को
समज्ञान यानि समूह
चेतना के रूप में देखा
गया है।’’
‘‘भारत में
लोकतंत्र एक संस्कार
है। भारत के लिए लोकतंत्र
जीवन मूल्य है,
जीवन पद्धति है,
राष्ट्र-जीवन की आत्मा है।
भारत का लोकतंत्र
सदियों के अनुभव
से विकसित हुई
व्यवस्था है। भारत
के लिए लोकतंत्र
में जीवन मंत्र
भी है, जीवन
तत्व भी है और साथ
ही व्यवस्था का
तंत्र भी है… वो दिन दूर
नहीं जब दुनिया
भी कहेगी कि
भारत लोकतंत्र की
जननी है।… भारत में
लोकतंत्र नित्य नूतन
हो रहा है।’’
‘‘लोकतंत्र जो
संसद भवन के अस्तित्व का आधार है, उसके
प्रति आशावाद को
जगाए रखना हम सभी का
दायित्व है। संसद
पहुंचा हर प्रतिनिधि
जवाबदेह है। ये जवाबदेही जनता के प्रति भी
है और संविधान
के प्रति भी
है।… राष्ट्रीय संकल्पों की
सिद्धि के लिए हम एक
स्वर में, एक आवाज़ में
खड़े हों, ये बहुत ज़रूरी
है।’’
‘‘जब मंदिर
के भवन का निर्माण होता है तो शुरू
में उसका आधार
सिर्फ ईंट-पत्थर
ही होता है।
कारीगर, शिल्पकार, सभी
के परिश्रम से
उस भवन का निर्माण पूरा होता
है। लेकिन वो
भवन एक मंदिर
तब बनता है,
उसमें पूर्णता तब
आती है जब उसमें प्राण-प्रतिष्ठा होती है।
प्राण-प्रतिष्ठा होने
तक वो सिर्फ
एक इमारत ही
रहता है।… नया संसद
भवन भी बनकर तो तैयार
हो जाएगा लेकिन
वो तब तक एक इमारत
ही रहेगाए जब
तक उसकी प्राण-प्रतिष्ठा नहीं होगी।… संसद की नई
इमारत एक ऐसी तपोस्थली बनेगी जो
देशवासियों के जीवन
में खुशहाली लाने
के लिए काम करेगी।… हमारी लोकतांत्रिक
संस्थाओं की विश्वसनीयता
हमेशा और मजबूत
होती रहेए इसी
कामना के साथ मैं अपनी
वाणी को विराम
देता हूं।’’
सच बताइए, साढ़े
छह बरस से लोकतांत्रिक संवैधानिक संस्थाओं
की ईंट-दर-ईंट गिरते
देखने के बाद अपने कंधे
पर लदे नरेंद्र
भाई के कहे शब्दों का
यह खीसें निपोरता
बेताल देखना आपके
भीतर कैसे भाव
पैदा कर रहा है? सरकारें
बनाने-गिराने के
लिए छल-बल, ख़रीद-फ़रोख़्त
और ज़ुमलेबाज़ी से
भरा अपना पूरा
तरकश खाली कर देने के
जज़्बे से सराबोर
एक शहंशाह को
जम्हूरियत का आलीशान
मक़बरा बनाते देख
आपको कैसा लग रहा है?
विपक्ष-मुक्त भारत
की स्थापना करने
के अपने राष्ट्रीय
संकल्प की सिद्धि
के लिए सारी
परंपराओं को कुचलते
हुए आगे बढ़ रहे पराक्रम-पुरुष के
ये कथन आपको
कितने विश्वसनीय लग
रहे हैं?
हम जनतंत्र के प्राण-हरण के
प्रयासों पर आंसू
बहाएं या नए संसद भवन
में लोकतंत्र की
प्राण-प्रतिष्ठा के
वादों पर ताली बजाएं? भारत
तो लोकतंत्र की
जननी है ही। भारत में
लोकतंत्र तो एक
संस्कार है ही, जीवन-मूल्य
है ही, जीवन-पद्धति है
ही। मगर लोकतंत्र
के मंदिर में
प्रवेश करते वक़्त
माथा टेक कर उसे नमन
करने को अपने जीवन की
अविस्मरणीय स्मृति मान
कर उस पर इठलाने वाले
हमारे नरेंद्र भाई
ने लिच्छवी, कंबोज,
मौर्य, कलिंग और
भगवान बसवेश्वर के
जनतंत्र के साथ जो सलूक
किया है, हम उस पर
इतराएं तो कैसे इतराएं?
मेरे
कानों में अपने
प्रधानमंत्री की कही
यह बात डरावने
नगाड़े बजा रही है कि
भारत में लोकतंत्र
नित्य नूतन हो रहा है।
मूढ़ भारतवासियों को
यह समझना चाहिए
कि जिसे वे लोकतंत्र का क्षरण
समझ रहे हैं,
वह तो दरअसल
कायाकल्प है। यह
नित्य नूतनता का
तकाज़ा है कि पतझड़ का
मौसम आए। पुराने
पत्ते झरेंगे, तभी
तो नए पत्ते
आएंगे। एक नई अखिल भारतीय
वैचारिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और
राजनीतिक व्यवस्था के ताबड़तोड़
निर्माण का पावन-कर्म कर
रहे नरेंद्र भाई
के साथ एक स्वर, एक
आवाज़ में खड़े होने के
बजाय उन पर उंगलियां उठाने के
काम में लगे लोग ‘राष्ट्र
प्रथम’ की अवधारणा
के ख़िलाफ़ हैं।
और, इस तरह की असहमतियों
से निपटना नरेंद्र
भाई अच्छी तरह
जानते हैं। भारत
में जो ज़रूरत
से ज़्यादा लोकतंत्र
है, उसे छील-छाल कर
नूतन रूप देने
का समय आ गया है।
इसलिए संसद का नया त्रिआयामी
भवन ज़रूरी है
ताकि अब तक गोल-गोल
घूम रहे भारतीय
जनतंत्र को निश्चित
दिशा दी जा सके।
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