Saturday, January 2, 2021

हाहाहूहू युग के नक्कारखाने की तूती

 May 23, 2020

 

र, घर होता है। चाहे वह समंदर किनारे न हो, चाहे वह हरे-भरे जंगलों के बीच न हो, चाहे उसमें तीन तरफ़ से हवा न आती हो, चाहे उसे सूरज की किरणें न छूती हों, चाहे उसमें बड़ी-बड़ी खिड़कियां न होंमगर घर, घर होता है। महाठगिनी माया के पीछे-पीछे कोई संसार के कितने ही फेरे लगा ले, दर्द होने पर जैसे सबसे पहले मां याद आती है, वैसे ही मुसीबत में सबसे पहले अपना घर याद आता है। सो, हमने लाखों मेहनतक़शों को अपने माता-पिता, पत्नी-बच्चे और छोटे-मोटी गृहस्थी की गठरी पीठ-कंधे पर लादे सैकड़ें मील दूर अपने-अपने घरों की तरफ़ चलते देखा।

 

जब कु़दरत अपनी वाली पर उतर आई और हुक़्मरानों के लंबे-लंबे हाथ और चौड़े-चौड़े सीने भी सिकुड़ कर मतलबपरस्ती की फूं-फां कंदराओं में समा गए तो मनुष्य का पसीना भी अपनी वाली पर उतर आया। उसने घर जाने की ज़िद पकड़ ली। जब ठन जाती है तो परेशानी से बदहाल लोग भी ठान लेते हैं। अपने गुदगुदे गद्दों से जो कभी नीचे नहीं उतरे, उन्हें पसीना बहाते मानव की आनुवंशिकता में धंसी इस शिद्दत का अहसास हो ही नहीं सकता है। शिद्दत, जो पांवों में, पता नहीं कहां से, बला की ताक़त पैदा कर देती है। जो कमज़ोर कंधों को इस्पात का बना देती है। जो डेढ़-पसली ज़िस्म को इंद्र का वजª पहना देती है।

 

गली-गली बिखरी आधुनिक व्यायामशालाओं में लाखों रुपए सालाना खर्च कर अपने शरीरों को सिक्स-पैक प्रदान करने और भुजंग मांसपेशियों की फड़कन पर इतराने वालों को उत्तर-दक्षिण-पश्चिम से पूरब की तरफ़ कोसों पैदल सफ़र करना पड़ जाता तो नाइकी के आरामदेह जूतों और जेब में भरे मेवों के साथ एनर्जी ड्रिंक की गटक के बावजूद भी वे चीं बोल जाते। दिल्ली-मुंबई में ग़ाहे-ब-ग़ाहे हाफ़-मैराथन के चित्रोत्सव में शामिल होने वाले और अपनी योग-क्रियाओं का वीडियो प्रसारित कर हमें कृतार्थ करने वालों की मौजूदा थकान के गाल पर कामगारों के पसीने का यह थप्पड़ कई दशकों तक अपनी शंख-ध्वनि बिखेरता रहेगा।

 

अपनी ग़लतियों को मान लेने वाले अब हमारे बीच जन्म लेते ही कहां हैं? आप देख लेना, नहीं मानने वाले कभी यह नहीं मानेंगे कि इस साल के बारहवें मंगलवार की रात आठ बजे, जब महज चार घंटे की पूर्व-सूचना दे कर, एक अरब सैंतीस करोड़ भारतवासियों को अपनी-अपनी चारदीवारी में क़ैद कर देने का हुक़्म दिया जा रहा था तो वह एक पाप-कर्म था। आख़िर 2020 का साल कहीं भागा तो नहीं जा रहा था और उसमें 282 दिन बचे थे। आख़िर विषाणुग्रस्त लोगों की तादाद तब तक 600 के आसपास थी और तीन-चार दिनों में आसमान से कोई गाज़ नहीं गिरने वाली थी। देशवासियों से कहा जा सकता था कि वे इस बीच जहां-जहां पहुंचना चाहें पहुंच जाएं और इसके बाद उन्हें चार-छह हफ़्ते घर से बाहर जाने का मौक़ा नहीं मिलेगा। मगर नहीं। अपनी अपूर्वानुमेय छवि की स्थापना के लिए जन-मानस को चौंकाने का परपीड़क आनंद लेने की ललक रखने वाले दूसरों की इतनी चिंता कभी नहीं किया करते हैं।

 

24 मार्च को जब हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी अपना फ़रमान जारी कर रहे थे, मुझे पूरा विश्वास है कि उन्हें यह नहीं पता था कि उस दिन मानव अधिकारों के घनघोर उल्लंघन और उसके पीड़ितों की गरिमा की सच्चाई के अधिकार का अंतरराष्ट्रीय दिवस था। यह अलग बात है कि अगर उन्हें यह मालूम भी होता तो वे वही करते, जो उन्होंने किया। सड़क-सड़क पसरी त्रासदी की ताजा गाथाओं ने भी जिनके दिल नहीं भिगोए और जो इस दौर में भी अपना-तेरी की सियासत से बाज नहीं आए, वे किसी से क्या मुरव्वत करेंगे?

 

हमारे दरवाज़े पर लटके ताले को आज साठ दिन पूरे हो गए हैं। आपको यह तो मालूम है कि इस बीच घोषित रूप से विषाणुग्रस्त मरीज़ों की तादाद भारत में एक लाख बीस हज़ार के क़रीब हो गई है। आपको यह भी मालूम है कि इससे तक़रीबन 3600 लोगों की जान जा चुकी है। लेकिन क्या आपको यह भी मालूम है कि एक अरब सैंतीस करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में इन दो महीनों में, सरकारी दावों के हिसाब से, सिर्फ़ 27 लाख लोगों की ही कोरोना-जांच हो पाई है?

 

अब इसकी तुलना इस विषाणु से सबसे ज़्यादा प्रभावित दूसरे मुल्क़ों से कीजिए। अमेरिका की 33 करोड़ की आबादी है और एक करोड़ 35 लाख कोरोना-परीक्षण हुए हैं। रूस की 14 करोड़ आबादी है, 80 लाख परीक्षण हुए हैं। ब्राजील की 21 करोड़ की आबादी है, साढ़े सात लाख परीक्षण हुए हैं। इटली की छह करोड़ की आबादी है, 32 लाख परीक्षण हुए हैं। स्पेन की साढ़े चार करोड़ की आबादी है, 30 लाख परीक्षण हुए हैं। ब्रिटेन की पौने सात करोड़ की आबादी है, 30 लाख परीक्षण हुए हैं। फ्रांस की 6 करोड़ की आबादी है, 14 लाख परीक्षण हुए हैं।

 

अपनी अधकचरी अक़्ल चला कर दो महीने से ख़ुद की पीठ थपथपा रही हमारी सरकार का इस बीच सबसे बड़ा पराक्रम, मालूम है क्या रहा है? यह कि वह प्रति दस लाख की आबादी पर सिर्फ़ दो हज़ार लोगों का कोरोना-टेस्ट कर पाई है। इतनी ही आबादी पर स्पेन ने 65 हज़ार, इटली और रूस ने 54-54 हज़ार, ब्रिटेन ने 46 हज़ार, अमेरिका ने 41 हज़ार और फ्रांस ने 21 हज़ार परीक्षण किए हैं।

 

यह तो परीक्षण का हाल है। इलाज़ का हाल न पूछें तो ही बेहतर। ईश्वर न करे, इस कोरोना-काल में किसी को किसी भी वज़ह से अस्पताल जाना पड़े। कोरोना तो कोरोना, गंभीर से गंभीर किसी और बीमारी के इलाज़ के लिए भी कोई अस्पताल आपका इलाज़ तब तक शुरू नहीं करेगा, जब तक कि पहले आपकी कोरोना-रिपोर्ट न आ जाए। अगर आप ख़ुशक़िस्मत हैं तो यह रिपोर्ट आने में दो दिन लगेंगे और नहीं तो तीन-चार-पांच दिन कुछ भी लग सकते हैं। तब तक आप भर्ती होने का इंतज़ार कीजिए। बाकी भगवान की मर्ज़ी। केंद्र और राज्यों की सरकारें गा-बजा कुछ भी रही हों, असलियत यह है कि सरकारी अस्पताल नियमावली लटकाए बैठे हैं और निजी अस्पतालों के पास नियमावली के अलावा आपको लूटने की मूल्य-सूची भी मौजूद है।

 

दुनिया में इस समय विषाणुग्रस्त मरीज़ों की तादाद 52 लाख के आसपास है और क़रीब 3 लाख 35 हज़ार लोगों की इससे जान जा चुकी है। कोरोनाग्रस्त लोगों में से 21 लाख ठीक भी हो चुके हैं। सबसे ज़्यादा मौतें अमेरिका में हुई हैं97 हज़ार। ब्रिटेन में 36 हज़ार, इटली में साढ़े 32 हज़ार, फ्रांस और स्पेन में 28-28 हज़ार और ब्राजील में 20 हज़ार लोग कोरोना की वज़ह से जान गंवा चुके हैं। इस हिसाब से भारत में हमें ताली-थाली बजाने का हक़ अभी तक तो है। मगर जिस देश में एक लाख में से महज़ दो सौ लोगों का ही परीक्षण हो पा रहा हो, उसमें सरकार के भरोसे तो अपनी मुंडेरों पर दीये हम नहीं जला पाएंगे। सो, रामराज्य जब आएगा, तब आएगा; राम-भरोसे तो हम सदा से थे और रहेंगे।

 

छह साल पहले भारत ने हाहाहूहू के एक नए युग में प्रवेश किया था। इस युग के नक्कारखाने में देशवासियों की तूती कौन सुने? लेकिन मैं आश्वस्त हूं कि वंचितों के श्रम-जल की तूती फिर बोलेगी। फिर-फिर बोलेगी। वह ऐसे बोलेगी कि नक्कारखाने की दीवारें ढहा देगी। इस तूती की आवाज़ पर कान लगाए रखना। जब यह आवाज़ नज़दीक आने लगे तो अपनी ताली-थाली-दिया-बाती ले कर इसकी अगवानी करना। इस आवाज़ में जो अपनी आवाज़ नहीं मिलाएंगे, वे देश से द्रोह करेंगे।

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