July 25, 2020
अभी चार साल हैं, मगर 2024 के भारतीय सियासी परदे
के पीछे का दृश्य विपक्ष के लिए कितना गड्डमड्ड है और कितना नहीं, ज़रा परखिए।
प्रधानमंत्री
नरेंद्र भाई मोदी तो आगा-पीछा देखे बिना दनदनाते हुए चले जा रहे हैं। उन्हें इस बात
की कोई चिंता नहीं है कि उनके किए-कराए से देश कहां पहुंच गया है, कहां पहुंच रहा है
और कहां पहुंचेगा। उन्हें लगता है कि वे जो कर रहे हैं, सही कर रहे हैं। सो, वे किए
जा रहे हैं। घनघोर बहुमत की ‘थ्री-नॉट-थ्री’ उनके हाथ में है। इसलिए जनतंत्र-जनतंत्र चिल्ला
कर तो आप उनके कदम थाम नहीं सकते। 75 की उम्र में संन्यास दे देने की भारतीय जनता पार्टी
की ताजा परंपरा में नरेंद्र भाई के लिए अपवाद करने की ज़रूरत चार साल बाद इसलिए नहीं
पड़ेगी कि वे तब 73 के ही होंगे और अगर रायसीना पहाड़ी चढ़ गए तो फिर सत्तासीन प्रधानमंत्री
को कौन तकनीकी आधार पर बीच में विदा करता है?
लेकिन चार बरस
बाद सकल-विपक्ष के पास कौन-सा चेहरा होगा? कांग्रेस को फ़िलवक़्त एक तरफ़ रख दें तो बाकी
विपक्ष के मौजूदा चेहरे कौन-से हैं? अखिल भारतीय पहचान रखने वाले चेहरों में शरद पवार
हैं, ममता बनर्जी हैं, अरविंद केजरीवाल हैं और अखिलेश यादव हैं। चार साल बाद जब आम
चुनाव हो रहे होंगे तो पवार 83, ममता 59, केजरीवाल 55 और अखिलेश 51 की उम्र छू लेंगे।
मुलायम सिंह यादव तब 85 के होंगे। लालू प्रसाद यादव होंगे तो 76 के ही, मगर विपक्षी-जहाज
को खेने में कितना प्रत्यक्ष योगदान दे पाएंगे, कौन जाने!
इस लिहाज़ से
ममता, केजरीवाल और अखिलेश को हम उन नाविकों की सूची में शामिल कर सकते हैं, जो
2024 में विपक्ष की पतवार संभाले दिखेंगे। द्रमुक नेता एम. के. स्तालिन तब 71 के होंगे
और विपक्ष का बड़ा सहारा बनेंगे। 2024 में 34 बरस के हो रहे लालू-पुत्र तेजस्वी भी विपक्ष
की नैया के बड़े खिवैया बनने की क्षमता रखते हैं। अगर तब 41 के हो रहे पासवान-पुत्र
चिराग ने भी इसी नाव का एक चप्पू अपने हाथ में थाम लिया तो लहरों पर राज करने की उसकी
संभावना को और दम मिलेगा।
विपक्ष मे दूसरे
क्रम पर वे चेहरे हैं, जो अभी तो विपक्ष-सरीखे संकेतों के हिंडोले पर बैठे दीख रहे
हैं, मगर जिनकी पृष्ठभूमि या इतिहास ऐसा है कि चार साल बाद उनके ऊंट की करवट तयशुदा
मानने को मन अभी पूरी तरह नहीं मानता है। मैं इनमें नीतीश कुमार को भी शामिल कर रहा
हूं और रामविलास पासवान को भी। बाकी हैं मायावती, उद्धव ठाकरे, जगनमोहन रेड्डी, हेमंत
सोरेन, नवीन पटनायक, के. चंद्रशेखर राव, एन. चंद्राबाबू नायडू, उमर अब्दुल्ला और महबूबा
मुफ़्ती।
आम चुनावों के
वक़्त नीतीश 73 के और पासवान 78 के होंगे। मायावती 68 की, उद्धव 63 के, जगन 52 के,
हेमंत 48 के, पटनायक 77 के, चंद्रशेखर राव 70 के, चंद्राबाबू 74 के, उमर अब्दुल्ला
54 के और महबूबा 65 की उम्र पूरी कर लेंगे। अगर 2024 तक इन सभी की मौजूदा सन्मति कायम
रही तो भी हम पासवान और पटनायक से तो कोई ज़्यादा उम्मीद बांध नहीं सकते। मगर नीतीश,
मायावती, उद्धव, जगन, हेमंत, चंद्राबाबू, चंद्रशेखर, उमर और महबूबा का नौ-अश्वी रथ
अगर एक दिशा में चल पड़ा तो वह मनमानेपन की
नृत्यशाला में भुस भर देने की अच्छी-ख़ासी कूवत रखता है।
अब आइए वाम-दलों
पर। चुनावी सियासत के दस्तरख़्वान पर वाम-दलों के लिए अपनी छटा बिखेरना बाएं हाथ का
खेल तो अभी शायद ही दशकों तक हो पाए। मगर भारतीय राजनीति की दीवार पर उनकी उकेरी इबारत
को पूरी तरह मिटा देना भी किसी के लिए आसान नहीं है। वाम विचार-शक्ति की बरगद-उपस्थिति
हमारे सामाजिक-राजनीतिक आचरण का अहम हिस्सा रही है और रहेगी। चुनावी पेड़ की पत्तियों
पर उसका अंकगणित कब कितना फलेगा, नहीं फलेगा, इसके फेर में जिन्हें पड़ना है, पड़ें।
मगर इतना तो तय है कि इस पेड़ की जड़ों में वाम-सोच की माटी हमेशा चिपकी रहेगी।
2024 के चुनाव
जब होंगे तो मार्क्सवदी नेता प्रकाश करात 76 के, सीताराम येचुरी 71 के और पिनरई विजयन
79 के हो रहे होंगे। बिमान बोस 85 के, मानिक सरकार 75 के, वृंदा करात 76 की, नीलोत्पल
बसु 67 और सुभाषिनी अली 76 छुऐंगे। कम्युनिस्ट नेता सुधाकर रेड्डी चार साल बाद 82 के
हो जाएंगे। डी. राजा भी तब 75 पूरे कर रहे होंगे। अमरजीत कौर 72 की और अतुल कुमार अंजान
61 के होंगे। कन्हैया कुमार तब 37 साल के होंगे। प्रकाश, वृंदा, सुभाषिनी, येचुरी,
सरकार, नीलोत्पल, राजा, अमरजीत, अंजान और कन्हैया को तब आप राजनीतिक आसमान के बाएं
छोर से निकलने वाले सूरज का गुनगुना ताप बिखेरने की स्थिति में और मज़बूती से पाएंगे।
कांग्रेस की
बात, राहुल गांधी और प्रियंका की बात, आगे कभी कर लेंगे। अभी तो इतना भर ही समझ लीजिए
कि जिन्हें लगता है कि कांग्रेस-मुक्त भारत की स्थापना हो गई तो वे चक्रवर्ती बन जाएंगे,
उनके लिए कांग्रेस-रहित विपक्ष का कुरुक्षेत्र भी कोई गोलगप्पा साबित होने वाला नहीं
है। कांग्रेस आज जैसी भी है, उसके नेताओं की हालत कैसी भी है, मगर उसकी सांगठनिक और
वैयक्तिक उपस्थिति की अखिल भारतीयता आज भी अच्छे-अच्छों को अपना सीना सिकोड़ने पर मजबूर
कर देती है। चार साल के दौरान कांग्रेस के ब्रह्मपुत्र में उफ़ान बढ़ेगा ही। उसकी लहरें
सियासी कोने में छाती पीट कर शांत हो जाने वाली नहीं हैं। जिन्हें यह उम्मीद है, वे
मूर्खों के स्वर्ग में वास कर रहे हैं।
अब ज़रा भारतीय
जनता पार्टी की दूसरी कतार पर निग़ाह डालिए। नरेंद्र भाई के बाद सब से बड़ा नाम है अमित
शाह का। चार साल बाद वे महज़ 59 साल के होंगे। दूसरा नाम है राजनाथ सिंह का। वे
2024 में नरेंद्र भाई की ही तरह 73 के हो जाएंगे। तीसरा नाम है नितिन गड़करी का। वे
तब 67 साल के होंगे। चौथा नाम है योगी आदित्यनाथ का। वे तब सिर्फ़ 52 बरस की उम्र पूरी
करेंगे। पांचवा नाम हो सकता है देवेंद्र फड़नवीस का। वे 54 के होंगे। छटा, सातवां, आठवां,
नौवां, दसवां–किसी भी क्रम पर हो, मगर आगे चल कर एक नाम हो सकता
है ज्योतिरादित्य सिंधिया का भी। 2024 में वे 53 के होंगे, लेकिन जब 2029 के चुनाव
हो रहे होंगे तो उम्र के लिहाज़ से उनका मुकाबला मौजूदा नामों में से सिर्फ़ योगी और
फड़नवीस के साथ रह जाएगा। इसे फ़िलहाल चंडूखाने की मान लें, मगर नौ साल बाद के लड्डू
अगर किसी के मन में अभी से फूट रहे हों और नौ साल बाद की आशंकाएं भी किसी को आज से
ही अपने काम पर लगा रही हों तो हैरत में मत पड़िए। सियासत पिछले छह बरस से हो तो गया
है गुब्बारों का खेल ही। सो, कब कौन भाजपा के गुब्बारे में उड़ान भरता दिखेगा, किसे
मालूम? हम अभी से अपनी आंखें क्यों मसलें?
चार साल बहुत
होते हैं। मगर चार साल बहुत नहीं भी होते हैं। ये चार साल अगर अर्थवान सारथियों ने
मिलजुल कर निकाल लिए, वे इधर-उधर के नैनमटक्कों का निवाला न बने और गिल्ली-डंडा खेलने
या श्वान-क्रीड़ाओं में शिरकत का शौक़ पूरा करने के बजाय, सियासत की शतरंज पर अपनी गोटियां
सहेज-सहेज कर संजीदगी से चलने का, कर्तव्य-पालन करते रहे तो भारत भाग्य-विधाता उन पर
अपना नेह बरसाने को आतुर बैठा है। विपक्ष जितना मरघिल्ला दिख रहा है, उतना है नहीं।
और, हुक़्मरान जितने अविजित दिखाई दे रहे हैं, हैं नहीं। बाकी प्रभु-इच्छा!
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