September 19, 2020
राजस्थान बाल-बाल नहीं,
बड़ी मुश्क़िलों से
बचा। मध्यप्रदेश ख़ुमारी
में जाता रहा।
पंजाब चंद नौकरशाहों
के भांगड़ा की
भेंट चढ़ता नज़र
आ रहा है। क्या पुदुचेरी
और क्या उसका
शोरबा? महाराष्ट्र और
झारखंड दिल की तसल्ली भर
को हैं। एक छत्तीसगढ़ है, जो कांग्रेस की लाज बचाए हुए
है। ईश्वर करे
कि वहां त्रिभुवनेश्वर
शरण सिंहदेव की
ललक की लपटें
इतनी न लपकें कि मुख्यमंत्री
भूपेश बघेल को ताताचट का
अहसास हो! यही कामना मैं
अशोक गहलोत के
लिए करूंगा कि
सचिन पायलट की
सहनशीलता फिर जवाब
न दे! कैप्टन
अमरिंदर सिंह अपने
आसपास की चहल-पहल पर
ज़रा ठीक से निग़ाह नहीं
रखेंगे तो उनका तो जो
होगा, सो, होगा;
कांग्रेस का बड़ा
नुक़सान हो जाएगा।
कमलनाथ ने अगर मध्यप्रदेश में कांग्रेस
की वापसी का
कमाल दिखा दिया
तो वे इतिहास
में कमाने-गंवाने-कमाने की
कला का अमर-प्रतीक बन
जाएंगे।
कांग्रेस
के लिए आगे का आसमान
काला नहीं, तो
सफ़ेद भी नहीं है। धूसर
तो वह है ही और
उसे धवल बनाने
के लिए राहुल
गांधी को पिचकारियों
से नहीं, जल-तोपों से
काम लेना होगा।
बरसों का प्रदूषण
नन्ही फुहारों से
दूर नहीं होगा।
उसके लिए तो घनघोर मूसलाधार
की ज़रूरत है।
फिर भले ही बादल फटने
से कुछ के घर बह
जाएं। उन घरों को अंततः
उजड़ना ही है। चार महीने
बाद तो बहुत-से लोग
वैसे भी अपने-अपने छप्पर
ले कर बसेरा
कहीं और बसाएंगे।
कांग्रेस के आंगन
में जो दीवार
खड़ी हो गई है, उसके
बाद एक छत के नीचे
सब का साथ रहना अब
मुमक़िन लगता नहीं
है। राहुल को
जानने वाले जानते
हैं कि वे मिट जाएं
तो भी मानेंगे
नहीं और बाक़ियों
को देखने वाले
भी देख रहे हैं कि
कैसे वे जिस राह पर
चल पड़े हैं,
उसके अंतिम छोर
तक अब यू-टर्न का
कटाव कहीं है ही नहीं।
इसलिए
जिस कांग्रेस का
निर्माण करने में
राहुल तेरह साल
से लगे हैं,
वह कांग्रेस तो,
मुझे लगता है,
अब उन्हें दोबारा
ही बनानी पड़ेगी।
एकदम नए सिरे से। इसमें
जोख़िम तो है, मगर इसके
सिवाय उनके पास
अब चारा ही क्या है?
दो ही तो विकल्प हैं।
एक, एक-दूसरे
के प्रति शक़
से भरे लोगों
से भरी लुंज-पुंज पार्टी
को ले कर
2024 के कुरुक्षेत्र में
उतरें और बीस-तीस बीधा
और भूमि पर विजय पा
कर लौटी घायल
सेना के ज़ख़्म भरने का
फिर इंतज़ार करें।
दो, सीधे 2029 की
तैयारी करें और तब तक
सूर्य के उत्तरायण
होने की प्रतीक्षा
करें। जिनके पास
इतना थमने का धैर्य हो,
उन्हें अपने साथ
ले लें और बाक़ी सब
को उनके हाल
पर छोड़ दें।
ऐसे में फ़िलवक़्त
तो कांग्रेस भी
अपने हाल पर छूट जाएगी।
लेकिन छूट जाएगी
तो छूट जाएगी।
राहुल गांधी-प्रियंका
गांधी में दम होगा तो
नौ साल बाद वह पलटी
मार देगी।
मगर अगर यह
दम है तो कांग्रेस को आज ही अंगड़ाई-स्नान कराने
से उन्हें रोक
कौन रहा है?
2024 के चुनाव में
अभी तो साढ़े तीन साल
हैं। उनमें से
ढाई बरस का ढैया अगर
दृढ़-निश्चय का
नीलम अपनी मध्यमा
पर धारण कर भाई-बहन
कल से ही बीज-मंत्र
का जाप शुरू
कर दें तो
2024 की गर्मियों में
कांग्रेस के सिर
सेहरा बंधने के
आसार क्यों नहीं
बन सकते? अगर
आज के दुर्दिन,
आज की दुरावस्था,
आज की तबाही,
आज की हाय-हाय और
आज का विचलन
भी नरेंद्र भाई
मोदी की भारतीय
जनता पार्टी को
अगले चुनावों में
विदा नहीं कर पाएगा तो
फिर नौ बरस बाद ही
आकाश से कौन-सी ऐसी
अग्नि-वर्षा होने
की उम्मीद पालें,
जिससे भाजपा राख
हो जाएगी? तो
जो कल करना है, आज
क्यों न करें? जो आज
करना है, वह अभी ही
क्यों न करें? दूसरों को
प्रतीक्षालय में रखने
की आदत के चलते हम
ख़ुद के लिए भी इतने
प्रतीक्षावादी क्यों हो
जाएं कि जब हमारे मन
की बेड़ियां खुलें,
तब तक हाथ-पांव चलने
से इनकार कर
चुके हों? हाथ-पैरों को
सही-सलामत रखने
वाली सारी व्यायाम
क्रियाएं अपना असर
खो चुकी हों?
तमाम सहयोगी उपादान
मुरझा चुके हों?
राहुल
को मैं ज़्यादा
नहीं जानता। प्रियंका
को तो एकदम नहीं। सोनिया
गांधी को ज़रूर थोड़ा जानता
हूं। आप तीनों
में से किसी को जानें,
न जानें; यह
जानने के लिए आपके पास
छठी इंद्रीय का
होना ज़रूरी नहीं
है कि इन तीनों के
पास अच्छे-अच्छे
पर्वतों को झकझोर
देने वाला जज़्बा
है। नहीं होता
तो 29 साल पहले
के हादसे के
बाद सब तिरोहित
हो गया होता।
सोनिया तब 44 बरस
की ग़ैर-सियासतदां
विदुषी होने के अलावा क्या
थीं? राहुल तब
21 साल के टुकुर-टुकुर युवा
होने के अलावा
क्या थे? प्रियंका
तब 19 बरस की सपनीली किशोरी
होने के अलावा
क्या थीं? सो,
जिन्हें लगता था और शायद
आज भी लगता है कि
अपना सियासी दस्तरख़ान
पसारने का मक़सद पूरा करने के
लिए एक छुईमुई
परिवार उनकी मुट्ठी
में आ गया है, उनके
बांस तो उलटे लदने पहले
दिन से ही तय थे।
मगर कुछ प्रश्न
ज़रूर हैं। अपने
गांभीर्य, गरिमा, विवेक
और दृढ़ता के
बूते कांग्रेस को
अंधेरी खाई से बाहर खींच
लाने वाली सोनिया
गांधी के होते हालात ऐसे
हुए कैसे और अगर हो
भी गए तो बदल क्यों
नहीं रहे हैं?
अपनी प्रयोगधर्मिता, नवोन्मेष
और छलछल-ऊर्जा
के बूते कांग्रेस
का एक नया व्याकरण रचने को घर से
निकले राहुल के
होते परिस्थितियों के
पत्थर राह को ऊबड़खाबड़ बनाने से
बाज़ क्यों नहीं
आ रहे हैं?
अपने सर्वसमावेशी स्वभाव,
स्नेहिल उदारता और
सकारात्मक ज़ुनून के
बूते कांग्रेस का
आंगन बुहारे रखने
वाली प्रियंका के
होते दालान में
कूड़ा-करकट जमता
कैसे जा रहा है?
क्या
हम यह मानें
कि सोनिया में
अन्यान्य कारणों से
अब वह ताब नहीं रही?
क्या हम यह मानें कि
राहुल के आसपास
वे आचार्य नहीं
हैं, जो कांग्रेस
की एक निश्चित
परिभाषा तय करने में उनके
सहयोगी बन सकें?
क्या हम यह मानें कि
धूल झटकने वाला
प्रियंका का पोंछा
कुछ लोगों ने
उनकी नज़र बचा कर छिपा
दिया है? मेरा
दिल इनमें से
किसी भी अवधारणा
को मानने को
राज़ी नहीं है।
मगर मेरा दिमाग़
पूरी तरह प्रश्न-मुक्त होने
को भी तैयार
नहीं है। कहीं
कुछ तो गड़बड़ है। वरना
ऐसा कैसे है कि तीन
पराक्रमी अश्वारोही कांग्रेस के
रथ को उसकी उपयुक्त दिशा में
नहीं ले जा पा रहे
हैं? दिशा नहीं
मालूम, यह कौन मानेगा? कांग्रेस को
उस दिशा में
ले जाने की इच्छा नहीं
है, कौन मानेगा?
बावजूद इसके, तीनों
की चल नहीं रही है,
कौन मानेगा?
भाजपा
से बेतरह तंग
आ चुका देश
कांग्रेस का इंतज़ार
कर रहा है। उस कांग्रेस
का, जिसकी छांह
तले वह अपने को महफ़ूज़
महसूस कर सके। नरेंद्र भाई मोदी
के बहुरुपियापन से
उकता चुका देश
राहुल गांधी का
इंतज़ार कर रहा है। उस
राहुल गांधी का,
जो समूचे विपक्ष
का चेहरा बन
सके। तो, दो ही नुक़्ते
तो सुलझने हैं।
एक, कि कांग्रेस
नया अवतार ले।
और, दूसरा कि,
राहुल पर विश्वास
जमे। कांग्रेस के
वैचारिक आधार की जड़ें संघ-कुनबे से
बेहद गहरी और व्यापक हैं।
भले-मानस और अर्थवान-निष्पादक के
तौर पर राहुल
की बुनियादी विश्वसनीयता
नरेंद्र मोदी से मीलों आगे
है। दिक़्कत सिर्फ़
इतनी है कि सियासत की
हाट-व्यवस्था पर
नरेंद्र भाई का कब्ज़ा हो
गया है। मगर न तो
थ्री-डी तकनीक
से भारत को बहुत दिनों
तक चकाचौंध में
रखा जा सकता है और
न ही खाट-सभाओं से
उसे ज़्यादा दिन
हांका जा सकता है। राहुल
जितनी जल्दी अपने
आसपास सुचिंतित और
परिपक्व प्रबंधन-विशेषज्ञों
का समूह जुटा
लेंगे, उतनी ही जल्दी 2024 नज़दीक आ जाएगा।
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